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केवलोत्पति-कल्याणक (शान कल्याणक)---
बसन्त काल का आगमन हुआ । प्रभु के हृदय में तृतीय शुक्ल ध्यान का उदय हुआ । अति निकृष्ट शरीर भी उत्कृष्ट होने लगा। ठोक ही है सुवर्ण की संमति से कायखप भी बहुमूल्य मरिण की कान्ति को धारण करता है । चैत्र कृष्णा अमावस के दिन रेवती नक्षत्र में सायंकाल पीपल के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हया। उसी समय इन्द्र ने शचि एवं देव देवियों सहित पाकर अनेकों दिव्य द्रव्यों से भगवान की पूजा की, ज्ञान की पूजा की । सर्वज्ञ प्रभु की प्रिय, हित, मित वाणी का प्राणीमात्र को लाभ हो इस उद्देश से कुवेर को आज्ञा दी। उसने भी उसी क्षण विशाल मण्डप तैयार किया। १२ कोठे रचे । इसका विस्तार ५|| योजन (२२ कोस) था । इन्द्र ज्ञान कल्याणक पूजा कर स्वर्गलोक को लौट गये। सर्वज्ञ, वीतरागी, हितोपदेशी, थी जिनराज की दिव्य ध्वनि प्रारम्भ हयी। अनेकों भव्यों ने ब्रत, नियम, संयम धारण कर शिष्यत्व स्वीकार किया। समवशरण में सभासदों की संख्या
उनके उपदेश की वृद्धि करने वाले ५० गणधर थे। प्रमुख गराधर जयाय (जय) था। ५५०० सामान्य केवली, ११०० पूर्वधारी, ३८५०० पाठक (उपाध्याय), ५५०० मनः पर्यय ज्ञानी, ६००० बिक्रियाद्धिधारी, ४८०० अवधिज्ञानी, ३२०० वादी थे। सम्पूर्ण मुनि संख्या ६६००० थी । सर्व श्री को मुख्य कर १०८०. प्रायिकाएँ थीं । पुरुषोत्तम को प्रधान कर २ लाख श्रावक और ४ लाख श्राविकाएँ थीं । असख्य देवदेवियाँ, संख्यात तिर्यञ्च थे। इनका शासन यक्ष किन्नर (पाताल था एवं यक्षी अनन्तमती (विज़ भिशी) थी।
इनका तप काल ७५० हजार वर्ष था। केवलज्ञान उत्पत्ति का स्थान सहेतुक वन में पीपल वृक्ष के नीचे था । केवली या सर्वज्ञ होने के बाद उन्होंने समस्त प्रायखण्ड को अपने धर्मामृत से अभिषिचित किया।
मुक्तिगमन एवं मोक्ष कल्याणक
मायु का १ मास शेष रहने पर वे योग निरोध कर अर्थात् उपदेशादि स्थगित कर श्री सम्मेदावल पर स्वयंप्रम कर (स्वयंमू) पर पा
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