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छमस्थ काल.....
लपोलीन प्रभु ने ३ वर्ष साधना में व्यतीत किये । पुन: एक दिन वे उसी समय दीक्षा वन में पधारे । जम्बूवृक्ष (जामुन) के नीचे बेला का नियम लेकर विराजमान हुए ।
केवलोत्पत्ति ---
माघ शुक्ला षष्ठी के दिन शाम के समय, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में प्रथम मोहनीय कर्म को चुर, शेष तीनों धातिया कर्मों का भी निर्दयता से संहार किया और १६ प्रकृतियाँ अघातिया की भी नष्ट की । सब ६३ प्रकृतियों को भस्म कर चराचर प्रकाशक अक्षय केवलज्ञान को प्राप्त कर अहत् हुए । अर्थात् विश्व बंधास इन्द्रों से पूज्य महन्त परमेष्ठी बने।
केवलज्ञान कल्याणक-..
केवलोत्पत्ति के साथ ही स्वर्ग में वारिणग बेल बजी। सभी इन्द्र अपनी-अपनी सेना परिवार के साथ हर्षोत्फुल्ल ज्ञान कल्याणक पूजा करने को प्रा गये । अनेकों उत्सम सुगंधित गंध, पुष्प, फल, अक्षतादि से भगवान विमलनाथ की पूजा की। प्रभु के धर्मोपदेशामृल का पान प्रत्येक भव्य प्राणी कर सके इस अभिप्राय से इन्द्र ने कुवेर को सभामण्डप रचने की आज्ञा दी। उसने भी प्रसाधारसा, भूमि से ५०० धनुप ऊपर प्रकाश में चारों ओर २० २० हजार कंचनमयी सीढ़ियों से युक्त सभामञ्च तैयार कर "समवशरमा' नाम दिया। इसके ठोक मध्य में गोलाकार गंधकुटी की रचना की । इसके चारों ओर वृत्त रूप में १२ विमाल होल बनाई । गंधकृटी के ऊपर सिहासन, उससे ४ अंगुल अंतरीक्ष में प्रभु विराजे 1 इन्हें घेर कर १२ प्रकोष्ठों में क्रमम; गराधरादि श्रोतागर बैठे । भगवान का मुख प्रात्मविशुद्धि के कारण चारों ओर दिखलाई पड़ता था । अतः समस्त श्रोताओं को संतोष रहता था ।
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उनकी सभा में मन्दर को प्रादि कर ५५ गणधर थे । ११०० चौदहपूर्व, ग्यारह अंग के ज्ञाता थे, ३६५३० पाठक, ४८०० तीन प्रकार के अवधिज्ञाली, ५५०० केवली, १००० बिक्रियाद्धिधारी, ५५०० मनः पर्ययज्ञानी, ३६०० वादी थे । इस प्रकार सब मिलाकर ६०००० मनि
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