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पुष्कराई के पूर्व मन्दराचल के पूर्व विदेह स्थित वत्स देश के गौरव स्वरुप सुसीमा नगरी का अधिपत्ति साम, दाम, दण्ड और भेद नीति का जाता था । संधि; निग्रह प्रादि तत्वों का वेत्ता था स्वामी, मन्त्री, किला, खजाना, मित्र, देश और सेना इन सात शाखाओं से उसका राज्यरुपी वृक्ष वृद्धि रूपी जल से अभिसिंचित हो बढ़ रहा था-विस्तृत हो गया था । धर्म, अर्थ और काम रुप फलों से फलित था। शत्रुनों का नाम न था । मोगों में प्राकण्ठ मग्न राजा बसंत श्री को पाकर उन्मत्त सा हो गया । सपरिवार अर्थात रानियों सहित एवं पुरजनों सहित वन विहार को चल पडा । वन महोत्सव में निमग्न राजा ने जाते हुए काल को नहीं समझा किन्तु कुछ ही समयोपरान्त वह वन श्री विद्यत वत विलीन हो गई । राजा विस्मित हो उसे खोजने लगा पर कहां पाता ? हताश राजा विषयों से विरक्त हो गया । भोमों की असारता से उसका मन खिन्न हो गया। वह विचारने लगा, ओह ! मैंने मेरी प्रायु का बहभाग यही विषयों में गमा दिया। मोह में पड़कर आत्मा को भूल ही गया। इन नपवर विषयों में अंधा बना रहा । अब अन्तरंग ज्योति प्रकट हुयी है। मेरे हृदय की दिव्य ज्योति में अब मैं आत्मान्वेषण करूमा । बस, बस अब यही करना है। शीघ्र राज्य जंजाल से म्यूट मुनि दीक्षा धारण कर निर्जन वन में प्रात्मानन्द का आश्वाद संगा"
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आत्मोन्मुख राजा उद्यान से राजप्रासाद में प्राये और अपने चन्दन नामके पुत्र को राज्यसिंहासनारूढ़ किया । समस्त वैभव का परित्याग कर प्रानन्द नामक आचार्य श्री के चरणाम्बुजों में जा मनि दीक्षा पार कर ली। समस्त अन्तरङ्ग-विषय-कषायों का परित्याग किया। प्रात्मशुद्धि करने लगे। शास्त्राध्ययन में मन लगाया। ग्यारह अंगों तक का अध्ययन किया । तत्त्व परिज्ञान कर सोलह कारण भावनाओं का चिन्तवन किया । तीर्थङ्कर प्रकृति का अंध किया । अन्त में समाधि सिद्ध कर पन्द्रहवें पारण स्वर्ग में इन्द्र हुए। २२ सागर आयु, ३ हाथ का शरीर और शुक्ल लेश्या थी।
गर्भ कल्याणक
भद्रपुर नगर के राजा इस रथ की रानी सुनन्दा का प्रांगन दिव्य ज्योति से जग-मगा उठा । अनेकों बहुमूल्य रत्नों के ढेर लग गये । आज जैसे प्रोलों से भूमि शुभ्र हो जाती है और घड़-धड़ अावाज से आकाश