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क्यों न इन्हें राज्य विभूति से अलंकृत करू ? जहाँ स्वयं इन्द्र उत्सव मनाने प्राबे वहाँ के वैभव और आमोद-प्रमोद का क्या ठिकाना? अनेकों रूपराशि सम्पन्न कन्याओं के साथ उनका विवाह हा । सुगंधित कमल पर भ्रमर समूह की भांति ये चारों ओर से कमलनयनियों से घिरे नाना सुखोपभोग सेवन करते थे। इस प्रकार ५० हजार पूर्व और २४ पूर्वांग राज्य सम्पदा का सुखानुभव करने में व्यतीत हुए ।
वैराग्य
सजे हुए अलंकार गृह में विराजे थे। देवियों द्वारा प्रलंकृत प्रभु ने दर्पण में मुखाकृति देखी । सहसा वे चौंक उठे, न जाने कहाँ कौन चिह्न उन्हें विकृत दिखाई दिया । वे सोचने लगे, 'पोह यह रूप सम्पदा, धन वैभव विकुत होने वाला है। एक दिन नष्ट हो जायेगा। क्या आयु क्षीण नहीं होगी ? राग-द्वेष की शृखला संसार की कारण है। मैं इसे जड़ से उखाडूंगा । अब एक क्षण भी इन भोगों में नहीं रहना है । उसी समय ब्रह्मस्वर्ग के अन्त में निवास करने वाले लौकान्तिक देवषि पाये और उनके वैराग्य भावों की पुष्टी कर चले गये।
दीक्षा कल्याणक
मनीषियों के हृढ़ संकल्प को कौन चला सकता है। आत्मदृष्टि होने पर कौन संसार से विमुख नहीं होता । तत्त्वज्ञ का अभिप्राय अचल होता है। श्री चन्द्रप्रभु राजा ने उसी समय अपने ज्येष्ठ पुत्र वरचन्द्र को बुलाया और राज्यभार अर्पण कर दिया । स्वयं देवों द्वारा लाई गयी "विमला' नामक पालकी में सवार हो गये । सात पैंड राजामों ने पालकी उठायी । पुनः देव प्रकाश मार्ग से ले जाकर 'सर्वर्तुक" वन में जा पहुंचे।
इन्द्र द्वारा स्वच्छ की हुयी, रत्नचूर्ण से मण्डित शिला पर विराजमान हो "नमः सिद्धेभ्य" के साथ भगवान स्वयं दीक्षित हुए । वस्त्रालंकारों का त्याग किया, अन्तरंग परिग्रह को प्रोडा, पौष कृष्णा एकादशी के दिन अनुराधा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ निर्ग्रन्थ मुलि हो गये । अन्तः शुद्धि के कारण उसी समय चतुर्थ मनः पर्यन झान प्राप्त हवा । बेला का उपवास धारण किया।