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मिलकर इन्द्रधनुष की शोभा को लज्जित कर रही थी। प्रभु का निरंतराय सुख से आहार समाप्त होते ही देवों ने पञ्चाश्चर्य किये। १ रनवृष्टि, २ पुष्पवृष्टि, ३ गंधोदक वृष्टि, ४ दुदुभिनाद और ५ जय-जय ध्वनि हुयी । राजा-रानी ने अपने को धन्य मानते हुए संसार भवावती को छेद कर ३ भव मात्र का बनाया। अर्थात् तीसरे भव से मुक्ति प्राप्त करेंगे। छचस्प काल
खान से प्राप्त सोना कुन्दन बनता है । यह मनुष्य साध्य है । कर्मलिप्त प्रात्मा परमात्मा में बनता है यह भी मानव पुरुषार्थ का अन्तिम माहात्म्य है। कून्दन बनाने को चाहिए अग्नि । परमात्मा बनने को चाहिए कठोर तप: साधना । वह (कुन्दन) बनाया जाता है पर परमात्मा बना जाता है। स्वयं तपना होता है। अपने ही द्वारा अपने को शुद्ध करना होता है । प्रस्तु, भगवान अपने में लय हए, अपनी मात्मा में ही तल्लीन हए। एक दो दिन नहीं पुरे ६ वर्ष व्यतीत किये मौन साधना में । प्रखण्ड मौन में छमस्थ काल व्यतीत किया । प्रातापन योग, वृक्षमूलाधि योग, शुभ्रावकाश योग इत्यादि नाना प्रकार के योग धारण कर कर्म शत्रु को वश किया । ध्यानानल में झोंक दिया । पक्षोपवास, मासोपवास आदि कर इन्द्रिय निग्रह कर प्रात्मा में समाहित हुए। मोह शत्रु को जीतने में समर्थ हुए।
अात्म शक्ति बढ़ने लगी, कर्म शक्ति क्षीण होने लगी। दुर्बलता भय का कारण है। बेचारे कर्म थर-थर कांपने लगे, कोई इधर-उधर भाग-दौड में लगे, कोई गिरा, कोई पडा: सब ओर भगदड मच गई । प्रभु अपने में मस्त थे, बढ़ रहे थे मुक्ति पथ पर, चरस्मों से नहीं-भावों से, परिणाम शुद्धि से । आ ही पहुँचे उस सीमा पर अहाँ से तीर लक्ष्य पर सही पहुँचे । धर्मध्यान की सीमा पार हुई। शुक्लध्यान का प्रारम्भ किया। सातिशय अप्रमत्त गुणास्थान से क्षपक श्रेणी प्रारोहण किया । क्रमश: पाठवें, नौ और दश से बारहवें गुणस्थान में जा पहुँचे । क्रमश : कर्म प्रकृतियों का क्षय करते हुए ६३ प्रकृतियों का समूल क्षय कर सर्वज्ञ हुए । केवल ज्ञान कल्याणक.....
धातिया कर्म चारों नाश हए । इधर कारण के अभाव में कार्य कहाँ से रहे । प्रस्तु, ज्ञानावरणी के अशेष प्रभाव से सकलज्ञान केवलमान
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