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________________ में सुकच्छ देश है, इसमें क्षेमपुर नाम का नगर है । इस नगर का राजा था नन्दिषेण । वस्तुतः यह मानन्द का पुञ्ज था। मानवता के समस्त गुणों का आकार था । पुण्य और प्रताप इसके साथी थे। बिना वैद्य के शरीर नोरोग और बिना मंत्री के राज्य सुख सम्पन्न था। समस्त प्रजा स्वभाव से इसमें अनुरागी थी। इसकी राज्य लक्ष्मी सुखद थी। तो भी अहंकार और ममकार इससे कोसों दूर क्या नहीं से थे। जिनभक्ति, विनय, गुरुसेवा और अध्ययन इसके प्रारण थे । धर्म अर्थं और काम तीनों पुरुषार्थ होड लगाये, बिना रुकावट के बढ़ रहे थे। परन्तु तीनों ही एक दूसरे के उपकारक थे । शत्रु विजय की इच्छा न केवल इस सम्बन्धी श्री अपितु पर लोक सम्बन्धी शत्रुओं को भी जीतने की थी । 1 ज्ञानी का लोक निराला ही होता है। वह सब कुछ करके भी कर्ता बना रहता है और सब कुछ भोगता हुआ भी श्रभोक्ता रह जाता है । यही हाल था राजा नन्दिषेस का । उसका लक्ष्य आत्म हित पर था । यह निरन्तर संसार, शरीर और भोगों की क्षणभंगुरता का विचार करता । आत्मा के ज्ञाता दृष्टा स्वभाव में रहता चिद्विलास को पाने का उद्यम करता । "जहाँ चाह वहाँ राह" सहसा वैराग्यांकुर प्रस्फुटित हुआ । द्वादशानुप्रेक्षायों के चिन्तन में रत हो गया। राग-द्वेष मोह का फन्दा फट गया । इन्द्रिय विषय भोग को दल-दल से ऊपर उठा । शरीर रोग रूपी सपों की वामी प्रतीत होने लगा । नव द्वारों से बहता हुआ वपु महा शुचिकर है यह पवित्र पदार्थों को भी refer बनाने का कारखाना है । सोचते-सोचते वह मनीषी मुमुक्षु परम विरक्त हो गया । ओह, इन भोगों ने मुझे खूब पेला है। प्रत्र तो मुझे अजर-अमर आत्मसुख का साधन संयम की शरण जाना चाहिए। इस प्रकार विचार कर परम शान्त चित्त राजा ने अपने पुत्र धनपति को बुलाया और समस्त राज्यभार देकर वन प्रस्थान किया । महा तपोधन प्रस्रन्दन मुनिराज की शरण में जा परम् दिसम्बर मुद्रा धारण की । अर्थात् उभय परिग्रह का त्याग कर भावलिङ्गी साधु हो गये । ग्यारह का ग्रध्ययन कर घोse कारण भावनाओं की भाया, चिन्तन किया । फलतः तीर्थङ्कर गोत्र बांधा। अन्त में उत्तम समाधिमरण कर मध्यम ग्रैवेयक के सुभद्र नाम के विमान में अहमिन्द्र हो गये । यहाँ दो हाथ का शरीर शुक्ल लेक्या पायी । वह १३ || माह F ११४ ] 1wwwww 7
SR No.090380
Book TitlePrathamanuyoga Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayamati Mata, Mahendrakumar Shastri
PublisherDigambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages271
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, H000, & H005
File Size5 MB
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