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राजा देवराज अरसु-चामुण्डाय के वंशज, काश्यपगोत्री, लिलिकरे के अनन्तराज अरसु (राजा) के प्रपौत्र, तोट के राज देवराज के पौत्र और सत्यमंगल के शासक हलुवैअरसु के पुत्र लथा मैसूर नरेश महाराज (इमडि) कृष्णराज ओड़ेयर के प्रधान अंगरक्षक यह राजा देवराज अरस दुर्धर्ष सपरविजयी, उद्भट सभा-विजेता, विद्यारसिक, विद्वान, धर्मज्ञ, सदाचारी, धर्मात्मा और राज्यमान्य वीर थे। जीवन के अन्तिम वर्षों में वह राज्यसेवा से अवकाश लेकर श्रवणबेलगोल में भमयान गोम्पटेश के चरणों में रहने लगे थे। वहीं उन्होंने अपने प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थ 'आत्मतत्यपरीक्षण' की संस्कृत भाषा में रचना की थी और उसी पुण्य भूमि में शक 1748 सम् 18246 ई. की फाल्गुन कृष्ण पंचमी रविवार के दिन, जबकि गोम्मटस्वामी का द्वादशवर्षीय महामस्तकाभिषेक हो रहा था, वह स्वर्गस्थ हुए। इस उपलक्ष्य में उनके पुत्र पुट्ट देवराज अरसु ने गोम्मटस्वामी की वार्षिक पादपूजा के लिए एक सौ बारह (स्वर्णमुद्रा) भेंट की थी। गोम्मटस्वामी के आवधिक महामस्तकाभिषेक को मैसूर के राजे सदैव से अपना एक महान राजकीय उत्सव एवं मेला मानते रहे हैं। इसमें बहुधा स्वयं भी उपस्थित हए हैं और राज्य की ओर से सर्व प्रकार सहयोग-सहायता, सुविधा आदि तो प्राप्त होते ही रहे है।
महारानी रम्भा--पूर्वोक्त मैसर नरेश कृष्णराज के पत्र एवं उत्तराधिकारी महाराज चामराज की महिषी थी। वह बड़ी विदुषी, इतिहास की रसिक, विद्वानों की प्रश्रयदाता और जैनधर्म की पोषक थी। पण्डिल देवचन्द्र ने अपना प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'राजाथलिकथे' इसी महारानी को 1841 ई. में समर्पित किया था।
देवचन्द्र पण्डित-1वीं शती के पूर्वार्ध में मैसूर राज्य के प्रसिद्ध विद्वान् जैन पण्डित थे। इतिहास इनका प्रिय विषय था। यह राज्य में करणिक (लेखाधिकारी या एकाउण्टेण्ट) के पद पर प्रतिष्टित थे। इनके पिताधा का नाम भी देवचन्द्र था और पिता का नाम देवप्प था। पद्मराज और चन्दपार्य इनके दो सहोदर थे। देवन्द्र पण्डित कमकपुर (मलेयूर) के निवासी थे और कनकगिरि के भगवान पार्श्वनाथ इनके कुलदेवता थे। अँगरेज विद्वान कर्नल मेकेन्जी जब 1804 ई. में लक्ष्मणराव के साथ कनकगिरि का सर्वेक्षण करने आया था तो यह देवचन्द्र उसके सम्पर्क में आये और उन्होंने कर्नल को स्वरचित 'पूज्यपादचरिते' की प्रति मेंट की। वह इनकी विद्वत्ता एवं बहुविज्ञता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने सजा से उन्हें अपने सहयोगी एवं सहायक के रूप में मांग लिया। अतः इतिहास में यह 'कर्नल मैकेजी के पण्डित' के नाम से प्रसिद्ध हुए। सुप्रसिद्ध 'मेकेन्जी कलेक्शन्स' (मेकेन्जी संग्रह) के संकलन एवं निर्माण में इनका प्रभूत योगदान था, प्रायः वैसा ही जैसा कि उसी काल में राजस्थान में कर्नल जेम्सटाड के सहायक जैन यति ज्ञानचन्द का था। इन्हीं देवचन्द्र ने 1838 ई. में अपनी जन्मभूमि पलेयर में पवित्र करकगिरि पहाड़ी स्थित चन्द्रप्रभवलदि के पश्चिम ओर की शिला पर अपने पूर्वजों की वंशावली उत्कीर्ण
आधुनिक युग : देशी राज्य :: 349