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________________ ......11.112................. ......... .1012- Ravint r i . inin...... अस्तु, उक्त इतिहास-ज्ञान तथा उसके प्रति कचि के अभाव की शिक पूर्ति करने के उद्देश्य से आगामी पृष्ठों में पूर्वपीठिका के रूप में महावीर-पूर्वयुग के नि का संकेत करके द्वितीयादि परिच्छेदों में महावीर युग में लेकर वर्तमान शतान्छो के प्रायः मध्य पर्यन्त हुए प्रमुख प्रभावक जैन स्त्री-पुरुषों का संक्षिस निहासिक परिचय देने का प्रयत्न किया जा रहा है। यों अपने मुंह से क्या बताएँ हम कि क्या ये लोग थे, नफसकुश नेकी के पुतले थे मुस्सिद योग धे। तेगी तरकश के धनी थे रज्जमगह में फ़दं थे; इस शुजाअत पर यह तुर्रा है, सरापा ददं थे। ---- देहलवी पूर्वपीठिका जैनों के परम्परागत विश्वास के अनुसार वर्तमान कल्पकाल के अवसर्पिणी विभाग के प्रथम तीन युगों में भोगभूमि की स्थिति थी। मनुष्य जीवन की वह सर्वधा प्रकृत्याश्रित आदिम अवस्था थी। न कोई संस्कृति थी, न सभ्यता, न ही कोई व्यवस्था थी और न नियम । जीवन अस्वन्त सरल, एकाकी, स्वतन्त्र, स्वच्छन्द और प्राकृतिक था। जो घोड़ी-बहुत आवश्यकताएं थीं उनकी पूर्ति कल्पवृक्षों से स्वलः सहन जाया करली था। मनुष्य शान्त एवं निर्दोष था। कोई संघर्ष या नहीं था। आधुनिक भृतत्त्व एवं नृतस्य प्रभृति विज्ञानसम्मत, आदिम युगीन प्रथम, द्विलीय एवं तृतीय गुग्गों (प्राइमरी, सेकेण्डरी एवं दर्शियरो इंपैक्स की वस्तुस्थिति के साथ उक्त जन मान्यता का अद्भुत सादृश्य है। वैज्ञानिकों के उक्त तीनों युग करोड़ों-लाखों वर्षों के अलि दीर्घकालीन थे, तो सैन मान्यता का प्रथम युग प्रायः असंख्य वर्षों का श्रा, दूसरा उससे आधा लम्बा था, और तीसरा दूसरे से भी आधा था, तथापि अनगिनत वषां का था। इस अनुमानातील सुदीर्घ काल में मानवता प्रायः सुषप्त पड़ी रही, असाय उसका कोई इतिहास भी नहीं है। वह अनाम युग था। तीसरे काल के अन्तिम भाग में विनिद्रित मनुष्य ने अंगड़ाई लेना आरम्भ किया । भोगभूमि का अपमान होने लगा। कालचक्र के प्रभार से निकाल परिबननों को देखकर लोग साकत और भयभीत होने लगे। उनके मन में नाना प्रश्न उठन लगे। जिज्ञासा करयट लेने लगी। अतएव उन्हान स्वयं को कलां जनों, समूहों य] कबीली) में गठिल करना प्रारम्भ किया। सामाजिक जीवन की नींव पड़ी। बल, बुद्धि आदि विशिष्ट जिन व्यक्तियों ने इस कार्य में उनका मार्गदर्शन, नेतृत्व और समाधान किया व 'कलकर' मालाये। वे आवश्यकतानुसार अनुशासन भी रखते थे और व्यवस्था भी देते थे, अतः , rनु' नाम भी दिया जाता है। उनकी सन्तति हान के कारण ही इस देश के निवासी मानव कहलाये नतीन युग के अन्न के .......... .. ........................... ..." "."" .... .. . .... प्रादेशिक ::
SR No.090378
Book TitlePramukh Aetihasik Jain Purush aur Mahilaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages393
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Biography
File Size9 MB
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