________________
प्रमाणमीमांसा १. व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एव व्याप्यस्य
वा तत्रैव भावः ॥६॥ - २४-'व्याप्तिः' इति यो व्याप्नोति यश्च व्याप्यते तयोरुभयोर्धर्मः । तत्र यदा व्यापकधर्मतया विवक्ष्यते तदा व्यापकस्य गम्यस्य 'व्याप्ये' धर्मे 'सति' यत्र धर्मिणि व्याप्यमस्ति तत्र सर्वत्र 'भाव' एव' व्यापकस्य स्वगतो धर्मो व्याप्तिः : ततश्च व्याप्यभावापेक्षया व्याप्यस्यैव व्याप्तताप्रतीतिः । नत्वेवमवधार्यते-व्यापकस्यैव व्याप्ये सति भाव इति, हेत्वभावप्रसङ्गात् अव्यापकस्यापि मूर्तत्वादेस्तत्र भावात् । नापि व्याप्ये सत्येवेत्यवधार्यते,प्रयत्नानन्तरीयकत्वादेरहेतुत्वापत्तेः,साधारणश्च हेतुः स्यानित्यत्वस्य प्रमेयेष्वेव भावात्।
सूत्रार्थ-व्यापक का व्याप्य के होने पर होना हो, अथवा व्याप्य का व्यापक के होने पर हो होना व्याप्ति है ॥६॥
२४-जो व्याप्त करता है (जैसे अग्नि आदि) और जो व्याप्त होता है (जैसे धूम आदि) ध्याप्ति उन दोनों का धर्म है। जब व्यापक के धर्म के रूप में व्याप्ति की विवक्षा की जाती है तब व्याप्ति का स्वरूप होता है-व्यापक का (अग्नि आदि साध्य का) व्याप्य (धूमादि) के होने पर होना ही । अर्थात् व्याप्य के होने पर व्यापक का सद्भाव अवश्य होना व्याप्ति है, जैसे धूम के होने पर अग्नि का अवश्य होना । इससे व्याप्यभाव की अपेक्षा से व्याप्य की ही व्याप्तता की प्रतीति होती है।
. व्याप्य के होने पर व्यापक का होना हो, ऐसा अवधारण किया गया है, इसके बदले 'व्याप्य के होने पर व्यापक का ही होना' ऐसा अवधारण नहीं किया गया है। यदि ऐसा अवधारण किया होता तो हेतु के अभाव का प्रसंग हो जाता। इसके अतिरिक्त व्यापक का ही होना' . ऐसा अवधारण करने से जो व्यापक नहीं उन सब का अभाव हो जाता, जब कि 'मूर्तत्व आदि अध्यापक भी वहाँ होते हैं। - व्याप्य' के होने पर ही व्यापकका होना' ऐसा अवधारण भी नहीं किया गया है । ऐसा करते तो 'प्रयत्नानन्तरीयकत्व' आदि अहेतु हो जाते और जो साधारण अनेकान्तिक हेत्वाभास है वह भी हेतु हो जाता, क्योंकि नित्यता प्रमेय पदार्थों में ही होती है।
तात्पर्य-यहाँ अवधारण के तीन रूप बतलाए गए हैं, यथा..(१) व्याप्य के होने पर व्यापक का होना ही।
(२) व्याप्य के होने पर व्यापक का ही होना। -, (३) व्याप्य के होने पर ही व्यापक का होना ।
इन तीन रूपों में से प्रथम रूप स्वीकार किया गया है, शेष दो रूपों को दूषित होने के कारण अस्वीकार किया गया है।