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________________ प्रमाणमीमांसा १७-.'उपलम्भः' प्रमाणमात्रमत्र गृह्यते न प्रत्यक्षमेव अनुमेयस्यापि साधनस्य सम्भवात्' प्रत्यक्षवदनुमेयेष्वपि व्याप्तेरविरोधात् । 'व्याप्तिः' वक्ष्यमाणा तस्या 'ज्ञानम्' तद्ग्राही निर्णयविशेष 'ऊहः' । १८-न चायं व्याप्तिग्रहः प्रत्यक्षादेवेति वक्तव्यम् । नहि प्रत्यक्षं यावान् कश्चिद् धूमः स देशान्तरे कालान्तरे वा पावकस्यैव कार्यं नार्थान्तरस्येतीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थः सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वाच्च । १९-नाप्यनुमानात्, तस्यापि व्याप्तिग्रहणकाले योगीव प्रमातां सम्पद्यत इत्येवंभूतभारासमर्थत्वात् । सामर्थ्यऽपि प्रकृतमेवानुमानं व्याप्तिग्राहकम् अनुमानान्तरं वा?। तत्र प्रकृतानुमानात् व्याप्तिप्रतिपत्तावितरेतराश्रयः । व्याप्तौ हि प्रतिपन्नायामनुमानमात्मानमासादयति, तदात्मलाभे च व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति । अनुमानान्तरात्तु व्याप्तिप्रतिपत्तावनवस्था तस्यापि गृहीतव्याप्तिकस्यैव प्रकृतानुमानव्याप्तिग्राहकत्वात् । १७-यहाँ उपलब्ध शब्द से प्रमाणमात्र का ग्रहण करना चाहिए, अकेले प्रत्यक्ष का नहीं। साधन प्रत्यक्षगम्य हो नहीं होता, अनुमानगम्य भी हो सकता है। प्रत्यक्ष की तरह अनुमेय पदार्थों में भी व्याप्ति का विरोध नहीं है । व्याप्ति का लक्षण आगे कहा जाएगा,उसका निश्चयात्मक ज्ञान ऊह या तर्क प्रमाण कहलाता है। १८-व्याप्ति का ज्ञान प्रत्यक्ष से ही हो जाता है । ऐसा नहीं कहा जा सकता, देशान्तर और कालान्तर में अर्थात् तीनों लोकों और तीनों कालो में जो कोई भी धूम है वह सब अग्नि का ही कार्य है। किसी अन्य का नहीं; इतना व्यापार प्रत्यक्ष नहीं कर सकता । वह तो इन्द्रियसम्बद्ध विषय से ही उत्पन्न होता है और आगे-पीछे का विचार करना उसका काम नहीं है। १९-अनुमान से भी व्याप्ति का ज्ञान नहीं हो सकता। व्याप्ति को ग्रहण करते समय प्रमाता योगी के समान हो जाता है अर्थात् त्रिलोक और त्रिकाल संबंधी अविनामाव को जानता है। परन्तु अनुमान में इस प्रकार का सामर्थ्य नहीं है । कदाचित् इतना बड़ा सामर्थ्य अनुमान में मान लिया जाय तो प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रकृत अनुमान ही व्याप्ति का ग्राहक होगा या दूसरा कोई अनुमान? प्रकृत अनुमानसे व्याप्ति का ग्रहण माना जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है व्याप्ति का ग्रहण हो जाने पर अनुमान उत्पन्न हो सकता है और अनुमान के उत्पन्न होने पर उससे व्याप्ति का ग्रहण हो सकता है। (व्याप्ति ग्रहण के विना अनुमान संभव नहीं है और क्योंकि अनुमान से ही व्याप्ति ग्रहण होता है, अतएव अनुमान के बिना व्याप्तिग्रहण होना संभव नहीं है ।) अगर दूसरे अनुमान से व्याप्तिग्रहण स्वीकार किया जाय तो अनवस्था दोष होता है। क्योकि दूसरा अनुमान भी व्याप्तिग्रहण होने पर ही हो सकेगा और वहाँ व्याप्ति ग्रहण करने के लिये फिर तीसरे अनुमान की आवश्यकता होगी। (तीसरा अनुमान भी व्याप्तिनहणपूर्वक ही होगा और वहाँ उसके ग्रहण के लिए चौथे अनुमान की आवश्यकता पडेगी। इस प्रकार की कल्पना का कहीं अन्त नहीं आएगा।
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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