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प्रमाणमीमांसा समवायस्त्वनाश्रित इति सर्व सर्वेण सम्बध्नीयान्न वा किञ्चित् केनचित् । एवं द्रव्य. गुणकर्मणां द्रव्यत्वादिभिः, द्रव्यस्य द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषैः, पृथिव्यप्तेजोवायूनां पृथिवित्वादिभिः, आकाशादीनां च द्रव्याणां स्वगुणोंगे यथायोगं सर्वमभिधानीयम्, एकान्तभिन्नानां केनचित् कथञ्चित् सम्बन्धायोगात्,इत्यौलूक्यपक्षेऽपि विषयव्यवस्था दुःस्था।
१३०-ननु द्रव्यपर्यायात्मकत्वेऽपि वस्तुनस्तदवस्थमेव दौस्थ्यम्; तथाहि-द्रव्यपर्याययोरैकान्तिकभेदाभेदपरिहारेण कथञ्चिद्भेदाभेदवादः स्याद्वादिभिरुपेयते, न चासौ युक्तो *विरोधादिदोषात्--विधिप्रतिषेधरूपयोरेकत्र वस्तुन्यसम्भवान्नीला-- नीलवत् १ । अथ केनचिद्रूपेण भेदः केनचिदभेदः; एवं सति भेदस्यान्यदधिकरणमभेदस्य चान्यदिति वैयधिकरण्यम् २ । यं चात्मानं पुरोधाय भेदो यं चाश्रित्याभेदस्ताभी वे स्वीकार नहीं करते । रह गया समवाय संबंध सो वह सर्वव्यापी है। उसके द्वारा संबंध होगा तो सभी का सभी के साथ होगा, न होगा तो किसी के साथ नहीं होगा।
इसी प्रकार द्रव्य का द्रव्यत्व के साथ, गुण का गुणत्व के साथ, कर्म का कर्मत्व के साथ,द्रव्य का द्रव्य गुण कर्म सामान्य और विशेष के साथ, पृथ्वीका पृथ्वीत्व के साथ,अप का अप्त्व के साथ, तेजस का तेजस्त्व के साथ, वायु का वायुत्व के साथ तथा आकाश आदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ संबंध के विषय में यथायोग्य सब कह लेना चाहिए। सारांश यह है कि जो एकान्ततः भिन्न हैं,उनका किसी के साथ किसी भी प्रकार सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में भी विषय की व्यवस्था संगत नहीं होती।
१३०-शंका-वस्तु को द्रव्य-पर्यायात्यक मानने पर भी असंगति तो कायम रहती ही है। स्याद्वादी द्रव्य और पर्याय के एकान्त भेद और अभेद का परित्याग करके कथंचित् भेदाभेद स्वीकार करते हैं । किन्तु वह युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि उसमें विरोध (आठ) दोष उपस्थित होते हैं वे दोष इस प्रकार है
१-विरोध-विधिनिषेध रूप भेद और अभेद का एक वस्तु में रहना असंभव है। जैसे नील और अनील का रहना।
२-वैयधिक रण्य-अगर किसी रूप से भेद और किसी रूप से अभेद कहो तो भेद का अधिकरण भिन्न और अभेद का अधिकरण भिन्न होगा। यह वैयधिकरण्य दोष है।
*१-जो अनुपलम्भ से साध्य हो, वह विरोध कहलाता है जैसे-हिम और आतप का । २-विभिन्न आधारों में वृत्ति होना वैयधिक ण्य (व्यधिकरणता) है। ३-अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना करतेकरते कहीं अन्त न आना अनवस्था दोष है। ४-एक साथ दोनों की प्राप्ति होना संकर दोष है । ५-परस्पर विषय-गमन व्यतिकर दोष है। ६- निश्चित अनेक कोटियों का ज्ञान संशय है। ७-अप्रतिपत्ति-अज्ञान। ८-प्रमाण का विषय क्या है-यह निश्चित न होना विषयव्यवस्था-हामि दोष है।