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प्रमाणमीमांसा
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अपि नित्यं परमार्थसन्तं सन्ताननामानमुपैषि भावम् । 'उत्तिष्ठ भिक्षो! फलितास्तवाशाः सोऽयं समाप्तः क्षणभङ्गवादः ॥ [ न्यायम० पृ० ४६४] इति ।
१२८ - नाप्यक्रमेण क्षणिकेऽर्थक्रिया सम्भति स ह्येको रूपादिक्षणो युगपदनेकान् रसादिक्षणान् जनयन् यद्येकेन स्वभावेन जनयेत्तदा तेषामेकत्वं स्यादेकस्वभावजन्यत्वात् । अथ नानास्वभावैर्जनयति किञ्चिदुपादानभावेन किञ्चित् सहकारित्वेन; ते तर्हि स्वभावास्तस्यात्मभूता अनात्मभूता वा ? | अनात्मभूताश्चेत्; स्वभावहानिः । यदि तस्यात्मभूताः; तहि तस्यानेकत्वं स्वभावानां चैकत्वं प्रसज्येत । अथ य एवैकत्रोपादानभावः स एवान्यत्र सहकारिभाव इति न स्वभावभेद इष्यते; तर्हि नित्यस्यैकरूपस्यापि क्रमेण नानाकार्यकारिणः स्वभावभेदः कार्यसाङ्कयं च मा भूत् । अथाक्रमात् क्रमिणामनुत्पत्तेर्नैवमिति चेत्; एकानंशकारणात् युगपदनेककारणसाध्यानेककार्यविरोपर क्षणों से उसमें कोई विशेषता नहीं रहेगी। यदि नित्य कहो तो एकान्त पर्यायवाद कैसे निभे ? कहा है- 'यदि नित्य और परमार्थमत् सन्ताननामक भाव को स्वीकार करते हो तो हे भिक्षो ! तुम्हारी आशाएं फलवती हुईं। यह क्षणभंगवाद समाप्त हो गया !
१२८-क्षणिक पदार्थ में युगपत् अर्थक्रिया संगत नहीं हो सकती। एक ही समय तक रहनेवाला रूप यदि एक ही साथ रस, गंध, आदि अनेक पदार्थों को एक ही स्वभाव से उत्पन्न करेगा तो वे रस आदि एक ही हो जाएँगे क्योंकि जो एक स्वभाव से जन्म होते हैं वे एक ही होते हैं ।
बौद्धमतानुसार पूर्वक्षण अपने सजातीय उत्तर क्षण का उपादान और विजातीय उत्तरक्षण का निमित्त कारण होता है । बौद्ध नित्यवादी को यही दोनों दोष देते हैं ।
शंका-रूप, रस, गंध आदि को एक स्वभाव से उत्पन्न नहीं करता वरन् अनेक स्वभावों से उत्पन्न करता है । रूप अपने उत्तरक्षणवर्ती रूप को उपादान कारण हो कर उत्पन्न करता है और रस आदि विजातीय पदार्थों को निमित्त कारण बन कर । ( इसी प्रकार रस आदि भी सजातीय के प्रति उपादान और विजातीय के प्रति निमित्त कारण होते हैं ।) समाधान ऐसा है तो वे अनेक स्वभाव उस पदार्थ से भिन्न हैं या अभिन्न हैं ? भिन्न होने पर वे उसके स्वभाव नहीं हो सकते। अगर अभिन्न माने जाएँ तो अनेकरूप मानना पडेगा ( और वह निरंश नहीं रहेगा ) अथवा एक - निरंश-पदार्थ से अभिन्न होने के कारण स्वभावों में एकता माननी पडेगी ।
शंका- एक जगह उपादान होना ही दूसरी जगह निमित्त होता है (जैसे रूप का रूप के प्रति उपादान कारण होना ही रसादि के प्रति निमित्त होना माना जाता है ), अतएव पदार्थ में स्वभाव-भेद नहीं है । समाधान तो इसी प्रकार एक स्वभाववाला नित्य पदार्थ यदि क्रम से कार्य करे तो उसमें भी स्वभाव का भेद और कार्यों की संकरता नहीं होनी चाहिए । अगर यह कहा जाय कि अक्रम ( क्रमहीन - एकान्तनित्य) से क्रमिक कार्यों की उत्पत्ति संभव नहीं है तो फिर तुम्हारे माने हुए एक और निरंश कारण से, एक साथ, अनेक कारणों से साध्य, अनेक कार्य नहीं हो सकते । इस प्रकार क्षणिक पदार्थ भी अक्रम से कार्यकारी नहीं होने चाहिए ।