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________________ प्रमाणमीमांसा ११८-प्रत्यक्षस्य प्रकृतत्वात्तस्यैव विषयादौ लक्षयितव्ये 'प्रमाणस्य' इति प्रमाणसामान्यग्रहणं प्रत्यक्षवत् प्रमाणान्तराणामपि विषयादिलक्षणमिहेव वक्तुं युक्तमविशेषात्तथा च लाघवमपि भवतीत्येवमर्थम् । जातिनिर्देशाच्च प्रमाणानां प्रत्यक्षादीनां 'विषयः' गोचरो 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु' । द्रवति तांस्तान् पर्यायान् गच्छति इति द्रव्यं ध्रौव्यलक्षणम् । पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्त्यन्वयप्रत्ययसमधिगम्यमूर्खतासामान्यमिति यावत् । परियन्त्युत्पादविनाशधर्माणो भवन्तीति पर्याया विवर्ताः। तच्च ते चात्मा स्वरूपं यस्य तत् द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु, परमार्थसदित्यर्थः, यद्वाचकमुख्यः-"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" [तत्त्वा० ५. २९]इति,पारमार्षमपि “उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा“इति । ११९-तत्र 'द्रव्यपर्याय' ग्रहणेन द्रव्यैकान्तपर्यायकान्तवादिपरिकल्पितविषयव्युदासः । 'आत्म'ग्रहणेन चात्यन्तव्यतिरिक्तद्रव्यपर्यायवादिकाणादयैगाभ्युपगतविषयनिरासः। यच्छीसिद्धसेनः ११८-यहाँ प्रत्यक्ष का निरूपण चल रहा है, अतएव उसी के विषय आदि का निरूपण करना चाहिए, फिर भी यहाँ 'प्रमाणस्य' पद का प्रयोग करके प्रमाणसामान्य का विषय बतलाया है । इसका प्रयोजन एक साथ सब प्रमाणों के फल का निरूपण करना है । सब प्रमाणों का विषय समान है। अतएव उसे एक साथ बतला देने से ग्रन्थ में लाघव होता है । अलग-अलग कहने से ग्रंथ का निरर्थक विस्तार होगा । सामान्य को अपेक्षा से 'प्रमाणस्य' (प्रमाण का) इस एक वचन का प्रयोग किया है । अतएव प्रत्यक्ष आदि सभी प्रमाणों का फल द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु है, ऐसा समझ लेना चाहिए । जो अमुक-अमुक पर्यायों के प्रति द्रवित होता रहता है अर्थात् विभिन्न पर्यायों को धारण करता हुआ रहता है उसे 'द्रव्य कहते हैं । द्रव्य का दूसरा नाम 'ध्रौव्य' भी है । पूपर्याय के नष्ट हो जाने और उतर पर्याय के उत्पन्न हो जाने पर भी जिसके कारण उस वस्तु में एकाकार प्रतीति होती है, अर्थात् पर्यायों के पलटते रहने पर भी उनमें जो नित्य अंश ज्यों का त्यों बना रहता है, वह ऊर्ध्वतासामान्य हो द्रव्य कहलाता है । (जैसे कडा तोड़कर कुंडल बना लेने पर भी,स्वर्ण' वही का वही रहता है । यहाँ स्वर्ण' ऊर्ध्वतासामान्य या द्रव्य कहलाएगा।) जो पलटते रहते हैं-उत्पन्न होते और विनष्ट होते रहते हैं, उन्हें पर्याय कहते हैं। पर्याय का दूसरा नाम 'विवर्त' भी है। यह द्रव्य और पर्याय दोनों वस्तु के स्वरूप हैं-यह सम्मिलित दोनों ही वस्त हैं और ऐसी वस्त ही वास्तव में 'सत' कही जा सकती है। वाचकमख्य उमास्वाति ने कहा है- 'जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यमय हो, वही सत् है ।' सर्वज्ञप्रणीत आगम में भी यही कहा है-वस्तु उत्पन्न भी होती रहती है, नष्ट भी होती रहती है और ध्रुव भी रहती है।' ११९-प्रस्तुत सूत्र में 'द्रव्यपर्याय दोनों के ग्रहण से एकान्त द्रव्य या एकान्त पर्याय ही प्रमाण का विषय है, इस मत का निषेध हो जाता है । 'आत्मक' शब्द के प्रयोग से कणाद और यौग मत का निराकरण किया गया है, क्योंकि वे द्रव्य और पर्याय का एकान्त भेद स्वीकार करते हैं। श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है
SR No.090371
Book TitlePraman Mimansa
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherTilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1970
Total Pages180
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size18 MB
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