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प्रमाणमीमांसा
"अपाणिपादो मनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: ।
स वेत्ति विश्वं न हि तस्य वेत्ता तमाहुरग्न्यं पुरुषं महान्तम् "[ श्वेताश्व० ३. १९. ] इत्यादिः कश्चिदर्थवादरूपोऽस्ति नासौ प्रमाणम् विधावेव प्रामाण्योपगमात् । प्रमाणान्तराणां चात्रानवसर एवेत्याशङ्कयाह
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प्रज्ञातिशयविश्रान्त्यादिसिद्धेस्तत्सिद्धिः ॥ १६॥
५५--प्रज्ञाया अतिशयः तारतम्यं क्वचिद्विश्रान्तम्, अतिशयत्वात्, परिमाणातिशयवदित्यनुमानेन निरतिशयप्रज्ञासिद्धया तस्य केवलज्ञानस्य सिद्धि:, तत्सिद्धिरूपत्वात् केवलज्ञानसिद्धेः । 'आदि' ग्रहणात् सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् घटवदित्यतो, ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादान्यथानुपपत्तेश्च तत्सिद्धिः, यदाह-“धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत् पुंसां कुतः पुनः ।
ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादः श्रुताच्चेत् साधनान्तरम् ।" [ सिद्धिवि० पू० ४१३]
'जो हाथों और पैरों से रहित हो कर भी वेगशाली है जो नेत्रहीन होकर भी देखता और श्रोत्रहीन होकर भी श्रवण करता है और जो विश्व का वेत्ता है किन्तु जिसे कोई नहीं जान पाता वही सर्वोत्तम महान् पुरुष है ।"
यह जो आगम है सो केवल अर्थवाद ही है । यह प्रमाण नहीं है । आगम की प्रमाणता विधि ( कर्त्तव्य ) के विषय में ही मानी गई है ।
प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों के लिए सर्वज्ञ या सर्वज्ञता के विषय में कोई अवकाश ही नहीं है । इस आशंका का उत्तर
अर्थ- प्रज्ञा के तारतम्य की विश्रान्ति आदि की सिद्धि से केवलज्ञान की सिद्धि होती है ॥ १६ ॥ ५५ - प्रज्ञा का अतिशय ( उत्कर्ष ) कहीं विश्रांत हुआ है, क्योंकि वह अतिशय है । प्रत्येक अतिशय की कही न कहीं विश्रान्ति ( चरम परिणति ) अवश्य होती है, जैसे परिमाण के अतिशय की विश्रान्ति आकाश में हुई है। इस अनुमान प्रमाण से निरतिशय (सर्वोत्कृष्ट ) प्रज्ञा की सिद्धि होने से केवलज्ञान की सिद्धि होती है। निरतिशय प्रज्ञा की सिद्धि ही केवलज्ञान की सिद्धि है। सूत्र में प्रयुक्त आदि' शब्द से केवलज्ञान की सिद्धि के लिए यह अनुमान भी समझ लेना चाहिए- सूक्ष्म (परमाणु आदि ), अन्तरित ( राम-रावण आदि कालव्यवहित ) और दूर (मेरु आदि देशव्यवहत) पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय हैं क्योंकि वे प्रमेय हैं । जो प्रमेय होता है वह किसी न किसी के प्रत्यक्ष का विषय अवश्य होता है, जैसे पट । इसके अतिरिक्त ज्योतिष संबंधी ज्ञान में जो संवाद देखा जाता है, उससे भी केवलज्ञान की सिद्धि होती हूँ । कहा भी है
'अत्यन्त परोक्ष पदार्थों को भी कोई पुरुष अवश्य र्ज्ञान में जो संवाद देखा जाता है, वह कैसे होता ? (शास्त्र) से होता है तो उसके लिए भी दूसरे साधन की आवश्यकता है ।'
जानता है । ऐसा न होता तो ज्योतिकदाचित् कहा जाय कि यह संवाद श्रुत