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प्रमाणमीमांसा २५. "अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्" इति नैयायिकाः । तत्रार्थोपलब्धौ हेतुत्वं यदि निमित्तत्वमात्रम् ; तदा तत् सर्वकारकसाधारणमिति कर्तृकर्मादेरपि प्रमाणत्वप्रसंगः । अथ कर्तृकर्मादिविलक्षणं करणं हेतुशब्देन विवक्षितम् ; तर्हि तत् ज्ञानमेव युक्तं नेन्द्रियसन्निकर्षादि, यस्मिन् हि सत्यर्थ उपलब्धो भवति स तत्करणम् । न इन्द्रियसन्निकर्षसामग्यादौ सत्यपि ज्ञानाभावे स भवति, साधकतमं हि करणमव्यवहितफलं च तदिष्यते, व्यवहितफलस्यापि करणत्वे दधिभोजनादेरपि तथाप्रसङ्गः । तन्न ज्ञानादन्यत्र प्रमाणत्वम्, अन्यत्रोपचारात् ।
२६-“सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम्" (न्यायसा• पृ० १) इत्यत्रापि साधनग्रहणात् कर्तृकर्मनिरासेन करणस्य प्रमाणत्वं सिध्यति, तथाप्यव्यवहितफलत्वेन साधकतमत्वं ज्ञानस्यैवेति तदेव प्रमाणत्वेनैष्टव्यम् ।
२७-"प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्" (प्रमाणवा० २. १) इति सौगताः। तत्रापि यद्य विकल्पकं ज्ञानम् ; तदा न तद् व्यवहारजननसमर्थम् । सांव्यवहारिकस्य चैतत् प्रमाणस्य
(अब पराभिमत प्रमाणलक्षणों पर विचार किया जाता है।)
२५-नैयायिक मत के अनुसार अर्थ की उपलब्धि अर्थत् ज्ञप्ति में जो हेतु हो वही प्रमाण है। इस लक्षण में 'हेतु' शब्द से यदि 'निमित्तत्व मात्र' अर्थ लिया जाय तो यह निमित्त सभी करणों में समान है, अतएव कर्ता और कर्म आदि भी प्रमाण हो जाएँगे। तात्पर्य यह है कि अर्थ (प्रमेय) की उपलब्धि में प्रमेय (कर्म) भी निमित्त होता है और प्रमाता (कर्ता) भी निमित्त होता है । अतएव प्रमेय और प्रमाता को भी प्रमाण मानना पडेगा। ___यदि हेतु' शब्द का अर्थ कर्ता और कर्म से विलक्षण केवल 'करण' ही माना जाय अर्थत अर्थोपलब्धि के करण को हो प्रमाण कहा जाय तो फिर ज्ञान को ही प्रमाण मानना चाहिए, इन्द्रियसन्निकर्ष आदि को नहीं, जिसके होने पर अर्थ उपलब्ध होता है, वही अर्थ की उपलब्धि में करण हो सकता है। इन्द्रियसन्निकर्ष आदि सामग्री के विद्यमान रहने पर भी ज्ञान के अभाव में अर्थ की उपलब्धि नहीं होती (अतएव वह करण नहीं है । ) करण साधकतम होता है और उसके होने पर कार्य की उत्पत्ति में व्यवधान नहीं होता। जिसके होने पर भी कार्य की उत्पत्ति में व्यवधान हो, उसे भी यदि करण माना जाय तो दधि भोजन आदि को भी करण (और करण होने से प्रमाण) मानना पडेगा । अतएव उपचार के सिवाय ज्ञान से भिन्न सन्निकर्ष आदि प्रमाण नहीं हो सकते।
२६- सम्यक् अनुभव का साधन प्रमाण कहलाता है'इस लक्षण में भी साधन'शब्द से कर्ता और कर्म का निराकरण करके करण को ही प्रमाणता सिद्ध होती है । और अव्यवहित फल (कार्य) वाला होने से ज्ञान ही साधकतम है, अतएव ज्ञान को ही प्रमाण स्वीकार करना चाहिए। - बौद्धमत में अविसंवादी अर्थात् सफल क्रियाजनक ज्ञान प्रमाण माना गया है। किन्तु ज्ञान यदि निर्विकल्पक होगा तो वह व्यवहारजनक नहीं हो सकता । आप सांव्यवहारिक प्रमाण का यह लक्षण मानते हैं। ऐसी स्थिति में निर्विकल्पक ज्ञान कैसे प्रमाण हो सकता है ?