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प्रमाणमीमांसा अनुभयत्रग्रहणमुभयरूपे वस्तुन्युभयकोटिसंस्पर्शऽपि संशयत्वनिराकरणार्थम्, यथा 'अस्ति च नास्ति च घटः', नित्यश्चानित्यश्चात्मा' इत्यादि ॥५॥
विशेषानुल्लेख्यनध्यवसायः ॥ ६॥ १९. दूरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मावमर्शरहितः प्रत्ययः अनिश्चयात्मकत्वात् अनध्यवसायः, यथा 'किमेतत्' इति । यदप्यविकल्पकं प्रथमक्षणभावि परेषां प्रत्यक्षप्रमाण वेनाभिमतं तदप्यनध्यवसाय एव,विशेषोल्लेखस्य तत्राप्यभावादिति ॥६॥
अतस्मिंस्तदेवेति विपर्ययः॥७॥ २०. यत् ज्ञाने प्रतिभासते तद्रूपरहिते वस्तुनि 'तदेव' इति प्रत्ययो विपर्यासरूपत्वाद्विपर्ययः, यथा धातुवैषम्यान्मधुरादिषु द्रव्येषु तिक्तादिप्रत्ययः, तिमिरादिदोषात् एकस्मिन्नपि चन्द्रे द्विचन्द्रादिप्रत्ययः,नौयानात् अगच्छत्स्वपि वृक्षेषु गच्छत्प्रत्ययः आशुभ्रमणात् अलातादावचक्रेऽपि चक्रप्रत्यय इति । अवसितं प्रमाणलक्षणम् ॥७॥
ऊँचाई ,ठ में भी होती है, पुरुष में भी होती है उसका ज्ञान तो होता है । किन्तु पुरुष और दूंठ में पाये जाने वाले विशेष धर्म मालूम नहीं होते । इस कारण एक ही वस्तु में स्थाणुत्व और पुरुषत्व, यह दो कोटियाँ प्रतीत होतो हैं, परन्तु निश्चय किसी का हो नहीं पाता। ऐसे ज्ञान को संशय समझना चाहिए।
सूत्र में 'अनुभयत्र' पद का प्रयोग किया गया है, वह इस बातको प्रकट करने के लिए है कि जिस वस्तु में दोनों ही धर्म विद्यमान हों, उसमें यदि दोनों धर्मों का बोध हो तो वह संशय नहीं कहलाएगा । जैसे-घट स्व-रूप से है और पर-रूप से नहीं है, आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी है। इत्यादि ॥ ६ ॥
अनध्यवसायका लक्षण विशेष का उल्लेख न करने वाला ज्ञान अनध्यवसाय कहलाता है ।। ६॥
१९-दूरो,अन्धकार अदिकारणों से असाधारण धर्म के विचार से रहित ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से अनध्यवसाय कहलाता है। जैसे-'यह क्या है !' इस प्रकार का ज्ञान ।
प्रथम क्षण में उत्पन्न होने वाला निर्विकल्पक ज्ञान भी, जिसे बौद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं, वास्तव में अनध्यवसाय हो है, क्योंकि उसमें भी विशेष धर्म का उल्लेख नहीं होता है ॥६॥
ज्ञान का लक्षण अतद्रूप वस्तु में तद्रूपता का निश्चय हो जाना विपर्यय ज्ञान कहलाता है।॥७॥
२२-ज्ञान में जो वस्तु प्रतीत हो रही है वह वास्तव में न हो फिर भी उसकी निश्चयात्मक प्रतीति होना विपर्यय ज्ञान है, क्योंकि वह विपरीत है। उदाहरणार्थ-धातु ( पित्त ) को विषमता से मधुर द्रव्यों का कटुक प्रतीत होना, तिमिर रोग आदि दोष के कारण एक ही चन्द्रमा में दो चन्द्रमा आदि का प्रतीत होना, वेग के साथ नौका के चलने से नहीं चलते हुए वृक्षों का भी चलना प्रतीत होना या शीघ्र भ्रमण के कारण अचक्र रूप अलात आदि का चक्र के रूप में प्रतिभास होना । यहाँ प्रमाण का लक्षण समाप्त हुआ ॥७॥