________________
प्रमाणमीमांसा
११
तथा च गृहीतग्राहिणां धारावाहिज्ञानानामपि प्रामाण्यप्रसंग: । ततोऽपूर्वार्थनिर्णय इत्यस्तु लक्षणम्, यथाहुः - "स्वापूर्वार्थि व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्" [ परीक्षा मु० १.१.] इति, " तत्रापूर्वार्थविज्ञानम्" इति च । तत्राहग्रहीष्यमाणग्राहिण इव गृहीतग्राहिणोऽपि नाप्रामाण्यम् ॥ ४ ॥
१५-अयमर्थः--द्रव्यापेक्षया वा गृहीतग्राहित्वं विप्रतिषिध्येत, पर्यायापेक्षया वा? तत्र पर्यायापेक्षया धारावाहिज्ञानानामपि गृहीतग्राहित्वं न सम्भवति, क्षणिकत्वात् पर्यायाणाम् ; तत्कथं तन्निवृत्त्यर्थं विशेषणमुपादीयेत ? अथ द्रव्यापेक्षया ; तदप्ययुक्तम् ; द्रव्यस्य नित्यत्वादेकत्वेन गृहीतग्रहीष्य मागावस्थयोर्न भेदः । ततश्च कं विशेषमाश्रित्य उसे प्रमाण मानने पर गृहीतग्राही धारावाहिक ज्ञान भी प्रमाण हो जाएँगे । अतएव 'अर्थनिर्णय' के स्थानपर 'अपूर्व अर्थनिर्णय' को प्रमाण कहना चाहिए, अर्थात् जो ज्ञान पहले नहीं जाने हुए पदार्थ का निश्चय करता है, वही प्रमाण है, ऐसा कहना चाहिए। कहा भी है'स्वा पूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात् जो ज्ञान अपना और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है, वही प्रमाण है । तथा 'तत्रा पूर्वार्थविज्ञानम्' इत्यादि । यहाँ भी अपूर्वार्थग्राही ज्ञान को ही प्रमाण कहा है। इस शंका का समाधान किया जाता है
ग्रहीष्यमाण इत्यादि - जैसे भविष्य में ग्रहण कियेजने वाले पदार्थ को वर्तमान में ग्रहण करनेवला ज्ञान अप्रमाण नहीं है, इसी प्रकार पूर्वगृहीत पदार्थ को वर्तमान में ग्रहण करनेवाला ज्ञान भी अप्रमाण नहीं है ॥ ४ ॥
१५ - अभिप्राय यह है - ज्ञान द्रव्य की अपेक्षा से गृहीत ही होता है या पर्याय की अपेक्षा से ? इनमें से किस गृहतग्राही ज्ञान की प्रमाणता का निषेध किया जाता है ? यदि पर्याय की अपेक्षा ज्ञान को गृहीतग्र ही कहा जाय तो धारावाहिक ( यह घट है यह घट है इस प्रकार लगातार होनेवाले ) ज्ञान भी गृहीतग्राही नहीं हो सकते, क्यों कि पर्याय क्षणिक होते हैं । प्रथम ज्ञान के द्वारा जो पर्याय जाना जाता है, वही दूसरे ज्ञान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। क्यों कि दूसरे ज्ञान के समय प्रथम पर्याय रहता ही नहीं है । अतएव धारावाहिक ज्ञान भी अपूर्व - अपूर्व पर्याय को ही जानते हैं । तो फिर उनकी प्रमाणता की निवृत्ति के लिए अपूर्व विशेषण लगाने की आवश्यकता ही क्या है ? द्रव्य की अपेक्षा से इन ज्ञानों को गृहीतग्राही मानना भी योग्य नहीं, क्योंकि द्रव्य नित्य है - त्रिकाल में एकरूप रहता है, अतएव गृहीत और ग्रहीष्यमाण अवस्थाओं में कोई भेद नहीं है । अतएव जैसे गृहीतग्राही ज्ञान को अप्रमाण मानते हो, उसी प्रकार ग्रह ष्यमाणग्राही को भी अप्रमाण मानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि वर्तमान में किसी पदार्थ को ग्रहण करनेवाला ज्ञान इस कारण अप्रमाण नहीं माना जाता कि वह पदार्थ भविष्यत् काल में भी ग्रहण किया जायगा । इसी प्रकार भूतकाल में ग्रहण किये हुए पदार्थ को वर्तमान में ग्रहण करनेवाला ज्ञान भी अप्राग नहीं हो सकता । जब ग्रहीष्यमाण अवस्था और गृहीत अवस्थाओं में कोई अन्तर नहीं है- दोनों में एक ही द्रव्य विद्यमान रहता है, तब किस विशेषता के आधार पर