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प्रमाणमीमांसा
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मे करणीयं परिहीयते, पीनसेन कण्ठ उपरुद्धः, इत्याद्यभिधाय कथां विच्छिन्दन्विक्षेपेण पराजीयते । एतदप्यज्ञानतो नार्थान्तरमिति १७ ।
९८ - स्वपक्षे परापादितदोषमनुद्धृत्य तमेव परपक्षे प्रतीपमापादयतो मतानुज्ञा नाम निग्रहस्थानं भवति । चौरो भवान् पुरुषत्वात् प्रसिद्धचौरव दित्युक्ते भवानपि चौरः पुरुषत्वादिति ब्रुवन्नात्मनः परापादितं चौरत्वदोषमभ्युपगतवान् भवतीति मता-नुज्ञया निगृह्यते । इदमप्यज्ञानान्न भिद्यते । अनैकान्तिकता वात्र हेतोः; स ह्यात्मी'यहेतोरात्मनैवानैकान्तिकतां दृष्ट्वा प्राह-भवत्पक्षेऽप्ययं दोषः समानस्त्वमपि पुरुatsetत्यनैकान्तिकत्वमेवोद्भावयतीति १८ ।
९९ - निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणं नाम निग्रहस्थानं भवति । पर्यनुयोज्यो नाम निग्रहोपपत्त्यावश्यं नोदनीयः 'इदं ते निग्रहस्थानमुपनतमतो निगृहीतोsसि' इत्येवं वचनीयस्तमुपेक्ष्य न निगृह्णाति यः स पर्यनुयोज्योपेक्षणेन निगृह्यते । एतच्च 'कस्य निग्रहः' इत्यनुयुक्तया परिषदोद्भावनीयं न त्वसावात्मनो दोषं विवृणुयात् 'अहं निग्राह्यस्त्वयोपेक्षितः इति । एतदप्यज्ञानान्न भिद्यते १९ ।
अमुक काम बिगड़ रहा है, पीनस से मेरा गला कंठ-रुँध गया है, इत्यादि कह कर अपना पिण्ड छुड़ाता है तो वह विक्षेप निग्रहस्थान से पराजित हो जाता है । किन्तु यह निग्रहस्थान भी अज्ञान से पृथक् नहीं है ? ।
९८-मतानुज्ञा वादी के स्वपक्ष में दिए गये दोष का निराकरण न करके, उलटे वही दोष परपक्ष में बगलाना मतानुज्ञा निग्रहस्थान है । यथा वादी ने कहा- आप चोर हैं, क्योंकि पुरुष हैं, प्रसिद्ध चोर के समान । तब प्रतिवादी कहता है- 'पुरुष होने के कारण आप भी चोर हुए। इस प्रकार कहने वाला प्रतिवादी अपने को चोर स्वीकार कर लेता है । किन्तु यह निग्रहस्थान भी अज्ञान से भिन्न नहीं है अथवा यहाँ हेतु में अनैकान्तिकता दोष समझना चाहिए। वह अपने हेतु में अपने से ही अनैकान्तिकता देख कर कहता है - आप के पक्ष में भी तो यही दोष समान है । तुम भी तो पुरुष ही हो। ऐसा कह कर वह एक प्रकार से अनैकान्तिक का ही उद्भावन करता है ।
९९ - पर्यनुयोज्योपेक्षण-निग्रहप्राप्त का निग्रह न करना पर्यनुयोज्योपेक्षण निग्रहस्थान कह लाता है । अभिप्राय यह है कि जो निग्रहस्थान को प्राप्त हुआ हो उसे प्रतिवादी को यह अवश्य कहना चाहिए कि- 'तुम अमुक निग्रहस्थान को प्राप्त हुए हो, । यदि कोई इसकी उपेक्षा कर
अर्थात् निग्रहप्राप्त को निगृहीत घोषित न करे तो वह उपेक्षा करने वाला स्वयं पर्यनुयोज्योपेक्षण नामक निग्रहस्थान का भागी बन जाता है । निग्रह किसका हुआ है, यह बात सभ्यों को प्रकट करनी चाहिए। स्वयं वादी या प्रतिवादी तो अपने दोष को जाहिर करेगा नहीं कि मैं निग्रह प्राप्त था और तुमने उपेक्षा करके मुझे निगृहीत नहीं किया । वस्तुतः यह निग्रहस्थान भी अज्ञान से पृथक नहीं है ।