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- णमतस्त'दभावप्रतिपत्तौ
तत्र
वक्तृत्वादेरसंभावन' मसंभावि'तव्यभिचाराच्चातस्तदभावस्य प्रतिपत्तिरिति । ततः स्थितं संभाव्यव्यभिचारत्वाद्वक्तृत्वादेरनैकांतिकत्वमिति । । 107 ।।
परवादी कहते हैं - वीतराग के वक्तृत्व की असंभावना होती ही है वक्तृत्व के व्यर्थ होने से वीतराग का वक्तृत्व से कोई प्रयोजन तो है नहीं, यह कहना ठीक नहीं है, स्वार्थ का अभाव होने पर भी परार्थ के होने से । वीतराग की परार्थ में भी कैसे प्रवृत्ति होगी ? यदि यह कहते हो तो बताओ कि कमल को विकसित करने में सूर्य की कैसे प्रवृत्ति होती है? यदि सूर्य का वैसा स्वभाव होने से कहते हो तो वीतराग को पर के लिए वक्ता होने में भी स्वभाव ही समान रूप से कारण है । अतः सर्वज्ञ आदि के भी वक्तृत्व युक्त ही है । इसी प्रकार पुरूषत्व आदि हेतु भी समीचीन है । जैमिनी आदि के यहां जैसे किसी को वेद के अर्थ का ज्ञाता माना गया है, उसी प्रकार सर्वज्ञ मानने में भी कोई विरोध नहीं है । सर्वज्ञादि के अविद्यमान होने के कारण उसमें वक्तृत्वादि भी नहीं है, यह कहना भी ठीक नहीं है । अन्य अनुमान से उसकी अविद्यमानता की प्रतिपत्ति होने पर यह अनुमान व्यर्थ हो जाता है, इसके द्वारा भी किंचिज्ज्ञत्वादि से सर्वज्ञाभाव की प्रतिपत्ति होने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है । सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि हो तो वक्तृत्वाभाव की सिद्धि हो और असंभावित व्यभिचार वाले वक्तृत्व हेतु से सर्वज्ञाभाव की प्रतिपत्ति हो । अतः संभाव्य व्यभिचार के कारण वक्तृत्वादि हेतु अनैकान्तिक ही है, यह सिद्ध हुआ । 1107 ||
तस्य
तस्य
ननु एवं शब्दानित्यत्वे प्रमेयत्वमप्यनैकांति' कमेव भवेत् तस्य नित्ये गगनादावपि भावेन व्यभिचारादिति चेत् न, कूटस्थस्य प्रमिता' वनुपयोगादुपयोगे वा कुतो न सर्वदा प्रमेयत्वं ? सहकारिसन्निधिसमय एव तद्भावादिति चेत् न तदापि प्राच्यरूपापरित्यागेन तदनुपपत्तेः, तत्परित्यागे तु परिणामि नित्यमेव । तन्न कूटस्थं न च तत्र भावाद्धेतोर्व्यभिचारः, 'सपक्षभावित्वेन साध्यप्रतिपत्तिं प्रत्यानुकूल्यात् । साध्यसपक्षत्वमपि तस्य शब्देऽपि सान्वयस्यैवा नित्यत्वस्य साधनान्न निरन्वयस्य, तद्वति प्रमितेरसंभवात् । न हि सा ततः समसमयान्निष्पन्नत्वेन तस्यास्तन्निरासत्वात्'। नाऽप्यतीताच्चिरतरातीतादिव कार्यकालमप्राप्तात्ततोऽपि तदनुपपत्तेः । न चातत्प्रभवया तया तस्य प्रमेयत्वं “नाकारणं विषय". इत्यस्य
सर्वज्ञाभावसिद्ध वक्तृत्वाभावसिद्धिस्तत्सिद्धौ सर्वज्ञाभावसिद्धः ।
घटत इति शेषः ।
अज्ञातव्यभिचारात् ।
अनैकांतिकं पुनर्द्विधेत्याद्युक्तप्रकारेण ।
निश्चितव्यभिचाराख्यमिति भावः । स्वप्रमितावित्यर्थः ।
7 प्रमाणविषयत्वमेव प्रमेयत्वं ।
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8 अप्रमेय ।
' गगनादौ हेतौ ।
10 कथसंचिदभिन्नस्यैव ।
निरपेक्षत्वात् ।
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