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________________ सत्यभ्यासपाटवे निर्विवक्षस्यैव' स्वापादौ तदर्थप्रतिपादित्वस्य प्रतिपत्तेः ।तन्न विवक्षावैकल्येन वीतरागस्य वक्तृत्वासंभवकल्पनमुपपन्नम् ।।106 || संभाव्यव्यभिचार-यथा "विवादापन्नः पुरूषः किंचिज्ञो रागादिमान्वा वक्तृत्वादे रथ्यापुरूषवत्" यहां व्यभिचार की संभावना है, सर्वज्ञादि में भी विरोध नहीं होने से वक्तृत्वादि की संभावना का विरोध नहीं होने से विरोध होने पर ज्ञान के प्रकर्ष का तारतम्य होने पर वक्तृत्व के अपकर्ष का तारतम्य प्राप्त होना चाहिये।किंतु ऐसा नहीं है।ज्ञान के प्रकर्ष का तारतम्य होने पर वक्तृत्व के प्रकर्ष के तारतम्य की ही प्रतिपत्ति होने से।अतः अतिशय पर्यन्त प्राप्त ज्ञान वाले के भी वक्तृत्व होता ही है।अतिशय ज्ञान वाले के वक्तृत्व नहीं होता उसके वीतराग होने से रागविशेषात्मक विवक्षा का अभाव होने से और वक्तृत्व के विवक्षापूर्वक होने से . ऐसा कहना ठीक नहीं है, विवक्षा के अभाव में भी गोत्रस्खलनादि में वक्तृत्व की प्रतिपत्ति होने से वहां जिस विषय पर बोला जाता है, उसकी विवक्षा नहीं होतो, विवक्षानंतर के होने पर भी वह वक्तृत्व का कारण नहीं होता, अतिप्रसंग होने से (घटादि के कारण मिटटी आदि को पटादि के कारण का प्रसंग होने से)|विवक्षापूर्वक वक्तृत्व होने पर शास्त्र का अभ्यास नहीं होने पर भी कोई वक्ता हो जायगा, विवक्षा की वहां भी संभावना होने से, किंतु ऐसा नहीं होता व्याख्याता की सेवा के विफल होने का प्रसंग होने से अभ्यास की सहायता से वक्ता हो ही जाता है, ऐसा कहना ठीक नहीं है, अभ्यास की निपुणता होने पर बिना विवक्षा के ही स्वापादि में शास्त्रों के अर्थ का प्रतिपादन करने की प्रतिपत्ति होने से।अतः विवक्षा के बिना वीतराग के वक्तृत्व के असंभव होने की कल्पना ठीक नहीं है। 1106 || उपपन्नमेव वैयर्थ्यात्, न हि वीतरागस्य तेन कश्चिदर्थ इति चेत् न, स्वार्थस्याभावेऽपि परार्थस्य भावात् ।तादृशस्य कथं परार्थेऽपि प्रवृत्तिरिति चेत्, भानोः पद्मविकासने कथं?तथास्वभावेनेति चेत्, समानमिदमन्यत्राऽपि ततो युक्तं सर्वज्ञादेरपि वक्तृत्वं ।एवं पुरूषत्वादिकमपि, तस्यापि क्वचित् सकलज्ञत्वादिना' जैमिन्यादौ वेदार्थज्ञत्वेनेव विरोधाभावात् । सर्वज्ञादेरविद्यमानत्वान्न वक्तृत्वादिक - मित्यपि न युक्तमन्य तस्तदविद्यमानत्वस्य प्रतिपत्तावस्य वैफल्यादनेनाऽपि तदभावस्यैव किंचिज्ज्ञत्वाद्युपनय"नेनोपस्थापनादत एव तत्प्रतिपत्तावन्योन्याश्रय 'पुंसः। 'वक्तृत्वासंभवकल्पनं। 'प्रयोजनं। 'प्रवृत्तिरिति शेषः। तथा स्वभावेनेतीदं। 'सि। 'साकमिति शेषः। "परवादी वक्ति। 'जैनो वदति। १७ "अन्यतः" "अतः" वेति विकल्पद्वयं प्रमाणांतरात् वक्तृत्वादिकात्। "आनयनेन। " द्वितीयविकल्पः। 75
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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