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________________ स्वार्थव्यवसायस्याव्युत्पत्त्यादिव्यवच्छेदात्मनस्तद्गतस्यापि कथंचित्पूर्वपूर्वस्मादुत्पत्तेः विषयभेदनिबंधनश्चावग्रहादीनामस्ति संख्याविकल्पः सोन्यत्र प्रतिपत्तव्य ।इति व्याख्यातं व्यवहारिकमिंद्रियप्रत्यक्षमनिंद्रियप्रत्यक्षं च।।58 ।। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष दोनों ही अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा के भेद से चार प्रकार के हैं।वहां विषय विषयी के योग्य देश में संबंध होने पर सत्ता मात्र के अवलोकन पूर्वक बाद में मनुष्यत्व आदि अनेक सामान्य को ग्रहण करने वाला ज्ञान अवग्रह है, वह अवग्रहित विषय देवदत्त होना चाहिये, इस प्रकार भवितव्यता की और उन्मुख प्रतीति ईहा है और उस विषय को यह देवदत्त ही है इस प्रकार की निश्चयात्मक धारणा अवाय है और उसी को कालान्तर में भी स्मरण रखने की योग्यता पूर्वक ग्रहण करना धारणा है। इन अवग्रहादि विकल्पों को पूर्वपूर्व की प्रमाणता है और उत्तरोत्तर का फलत्व है, ऐसा जानना चाहिये ।अनध्यवसाय आदि का निराकरण करने वाले स्वार्थव्यवसाय के भी कथंचित् पूर्वपूर्व से उत्पन्न होने से विषय भेद के कारण अवग्रह आदि के कितने भेद हैं उन्हें अन्यत्र जानना चाहिये। __ इस प्रकार व्यावहारिक इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष का वर्णन किया गया।15811 अधुना मुख्यप्रत्यक्षस्वरूपप्रतिपादनायाह। अब मुख्य प्रत्यक्ष का स्वरूप बताने के लिये कहते हैं __मुख्यं तु प्रत्यक्षमतींद्रियप्रत्यक्षं तद् द्विविधं, सकलं विकलं चेति। विकलमपि द्विविधमवधिर्मनःपर्ययश्चेति। तत्रावधिर्नामावधिज्ञानावरणवीर्यांतराय क्षयोपशमविशेषापेक्षया प्रादुर्भावोरूपाधिकरणभा'वगोचरो विषदावभासी प्रत्ययविशेषः। स च त्रिविधः, देशावधिपरमावधिसर्वावधिविकल्पात् ।तत्र देशावधे मतिज्ञानविषयस्यासर्वपर्यायद्रव्यलक्षणस्यानंतैकभागः, तदनंतैकभागःपरमावधेः, तदनंतैकभागश्च सर्वावधेर्विषयः प्रतिपत्तव्यः। विशुदयतिशयश्च पूर्वस्मादुत्तरोतरस्येति ।।59 || मुख्य प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है।वह दो प्रकार का है- सकलप्रत्यक्ष और विकलप्रत्यक्ष विकलप्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-अवधि और मनःपर्यय ।अवधि ज्ञान अवधिज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न रूपी पदार्थ को स्पष्ट प्रकाशित करनेवाला प्रतीति विशेष है।वह अवधि ज्ञान तीन प्रकार का है-देशावधि, परमावधि और सर्वावधि के भेद से। देशावधि का विषय मतिज्ञान के विषय द्रव्य की कुछ पर्यायों का अनन्तवां भाग है, उसका अनन्तवां भाग परमावधि का विषय है और उसका भी अनन्तवां 'पदार्थः। • असर्वपर्याय द्वव्यं लक्षणं यस्येति समासो विधेयः । ' सूक्ष्मरूपतया। भवतीति शेषः । 39
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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