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________________ यदि क्षयोपशम विशेष से आलिंगत आत्मप्रदेश ही अनिन्द्रिय है तो फिर द्रव्यमन की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है? यदि यह कहते हो तो फिर द्रव्येन्द्रिय चक्षु आदि की कल्पना की भी क्या आवश्यकता है? कोई आवश्यकता नहीं । क्षयोपशम विशेष से आलिंगत आत्मप्रदेश से ही चक्षु आदि के व्यापार के बिना भी सत्यस्वप्नादि में अन्तरंग विशुद्धि विशेष से ही रूपादि का दर्शन होता है, चक्षु इन्द्रिय की तो जाग्रत दशा में रूपादि के दर्शन में उसके कारण विशुद्धि विशेष के आधार जीव प्रदेश का आधार होने के कारण निमित्त मात्र के रूप में ही कल्पना की गयी है, इसीलिए तत्त्वज्ञानी चक्षु इन्द्रिय को प्रकाश में गवाक्ष के समान निमित्त मात्र कहते हैं, यदि यह कहते हो तो द्रव्यमन की कल्पना भी कहीं पंचेन्द्रिय जीव के सुखादि के वेदन में वहां पर स्थित जीवप्रदेश के आश्रित रहने वाले विशुद्धि विशेष को ही कारण होने पर निमित्त मात्र के लिए ही की गयी है । निमित्त का विवक्षित कार्य में सदैव होना आवश्यक नहीं है, गवाक्षादि के साथ व्यभिचार होने से | क्षयोपशम विशेषात्मक शक्ति विशेष का ज्ञान किससे होता है? जिससे इन्द्रियादि प्रत्यक्ष को उससे उत्पन्न माना जाय यदि यह कहते हो तो उसी प्रत्यक्ष से वह शक्ति विशेष कभी कभी होने से अकारण भी नहीं है । द्रव्येन्द्रिय मात्र से प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता, द्रव्येन्द्रिय नहीं होने पर भी कहीं सत्यस्वप्नादि में प्रत्यक्ष ज्ञान होने से और कही अन्य वस्तु में उपयोग होने पर द्रव्यमन के होने पर भी ज्ञान नहीं होने से। इस प्रकार द्रव्येन्द्रिय के न होने पर भी ज्ञान के होने और द्रव्येन्द्रिय के होने पर भी ज्ञान के न होने के कारण दूसरे कारण को प्रधान माना गया है और वह प्रधान कारण ऊपर कहा हुआ शक्ति विशेष ही है | अतः इन्द्रियादि प्रत्यक्ष उसी से उत्पन्न होता है, यह सिद्ध हुआ । 156 || कुतः पुनस्तदुभयस्यापि मुख्यमेव प्रत्यक्षत्वं न भवतीति चेत्, वैशद्यसाकल्यस्य तन्निबंधनस्य तत्राभावात् । व्यवहारिकत्वं तु तत्र तस्य वैशद्ये लेशोपाश्रयेण लोकस्य प्रत्यक्षव्यवहारप्रसिद्धेः । । 57 ।। इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिंद्रिय प्रत्यक्ष इन दोनों को मुख्य प्रत्यक्ष क्यों नहीं कहा ? यदि यह कहते हो तो संपूर्ण विशदता का जो मुख्य प्रत्यक्ष का कारण है वहां अभाव होने से। व्यावहारिकत्व तो वहां किंचित् विशदता होने के कारण संसार में व्यवहार की प्रसिद्धि होने से कहा गया है । 157 || तत्पुनरुभयमपि प्रत्यक्षं प्रत्येकमवग्रहेहाऽवायधारणाविकल्पाच्चतुर्विधं । विषयविषयिसन्निपातानंतरभाविसत्ता'लोचनपुरः सरो मनुष्यत्वाद्यवांतर सामान्याध्यवसायिप्रत्ययोऽवग्रहः । तदवगृहीतविशेषस्य देवदत्तेन भवितव्यमिति भवितव्यतामुल्लिखंती प्रतीतिरीहा । तद्विषयस्य देवदत्त एवायमित्यवधारणावानध्यवसायोऽवायः । तस्यैव' कालांतरस्मरणयोग्यतया ग्रहणं धारणा । तदेतेषामवग्रहादि विकल्पानां पूर्वपूर्वस्य प्रमाणत्वमुत्तरोत्तरस्य तत्फलत्वं प्रतिपत्तव्यम् । तत्र 1 2 3 4 इंद्रियानिंद्रियप्रत्यक्षभेदात् । योग्यदेशावस्थान | दर्शन । अवायविषयस्यैव । 38
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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