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वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और मुख्य प्रत्यक्ष सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी दो प्रकार का है-इन्द्रिय प्रत्यक्ष और अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष ।उसमें चक्षु आदि इन्द्रियों का जो कार्य है, बाह्य नीलादि का ज्ञान करना, वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष है।सौगत पूछते हैं, उसके विषय का नियम कैसे है? स्याद्वादी कहते हैं-कैसे नहीं है?बौद्ध कहते हैं संवेदनात्मक चक्षु आदि के द्वारा नीलादि के समान अन्य समस्त विषयों की अपेक्षा भी चक्षु आदि के संवेदन कार्य के समान होने से स्याद्वादी कहते हैं , यह कहना ठीक नहीं है, शक्ति की अपेक्षा ज्ञान की उत्पत्ति होने से संसारी जीवों का ज्ञान अपने अपने ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार सीमित शक्ति वाला होता है अतः सीमित विषयों का ही ज्ञान कर सकता है सबका नहीं।बौद्ध कहते हैं- जैसे सीमित शक्ति के कारण ज्ञान के द्वारा सीमित विषय को जानने का नियम है उसी प्रकार सीमित विषयों को समानता के कारण ही सीमित विषयों का ज्ञान क्यों नहीं हो जायगा?संवेदन के नील सारूप्य होने पर नील का ही संवेदन होगा, पीतादि का नहीं, यह नियम है यदि यह कहते हो तो नील का तत्सारूप्य क्या है?सदादि रूप तो कह नहीं सकते, उसके सर्वत्र साधारण रूप से नियामक नहीं होने से।नीलरूप ही सारूप्य है-यह कहना भी ठीक नहीं है, वह बाहर ही दिखाई देता है संवेदन में नहीं।संवेदन में तो अनीलरूप की ही प्रतीति होती है।पहले ही नीलादि को संवेदन से बाहर बताया जा चुका है।नीलसंवेदन नील के समान पीतादि के समान रूप क्यों नहीं है? नील के ही नील संवेदन का कारण होने से यदि यह कहते हो तो फिर चक्षु आदि से भी नियत विषय का ही ज्ञान क्यों नहीं होगा?वहां भी समान हेतु होने से।नीलानुकरण में ही उसकी शक्ति है तो फिर सारूप्य का कहना व्यर्थ है।नियमवती शक्ति से ही विषय के नियम की उत्पत्ति होने से इस प्रकार शक्ति के नि
नियम से सारूप्य का नियम और सारूप्य के नियम से विषय का नियम इस परिश्रम की परंपरा का परिहार हो जाता है।सारूप्य के होने पर भी वह नील क्या है?जिसके लिए नीलरूप ऐसा कहा है?संवेदनगत तो हो नहीं सकता, संवेदन में भेद का अभाव होने से भिन्न वस्तु की उत्पत्ति नहीं होने से।यदि बहिर्गत कहते हो तो वहां भी संवेदन कैसे होगा? उसको संवेदन का विषय होने से यदि यह कहते हो तो वह भी कैसे?साक्षात् ही उसके द्वारा उसका ग्रहण होने से यह कहना भी ठीक नहीं है, बाह्य और अन्तरंग रूप से नीलसारूप्य का प्रतिवेदन नहीं होने से उसके सदश होने से वह उसका विषय होता है साक्षात नहीं यह भी नहीं कह सकते।विषयरूप से उसकी प्रतिपत्ति नहीं होने पर उसके सादश्य का ही कठिनाई से बोध होने से दोनों की प्रतिपत्ति होने पर ही उसके सारूप्य की प्रतिपत्ति होती है. अप्रतिपत्ति होने पर नहीं एक रूप के जानने पर दोनों सारूप्य की संवित्ति नहीं होती। दोनों के स्वरूप को ग्रहण करने पर सारूप्य का वेदन होता है।यह नियम है।अतः संवेदन के द्वारा शक्ति के अनुसार ही विषय का ज्ञान होता है यह ठीक ही है। 150 ।।
तदाकारत्वेन तु तस्य तन्नियमे केशमशकादौ कुतस्तत्संवेदनस्य नियमः। नहि तत्र तदाकारत्वं, केशमशकादेरसद्रूपतया तदर्पकत्वानुपपत्तेः। अतः सकलस्याप्यसतस्तद्विषयत्वेन भवितव्यम् ।अतदाकारतया विवक्षितवदिदतरनिरवशेषाविद्यमानापेक्षयापि तस्याविशेषत् ।न वा कस्यचिदपीत्यप्रतिवेदनमेवासद्रूपस्येति न प्रत्यक्षलक्षणे तद्व्यवच्छेदार्थमभ्रांतग्रहणमुपपन्नम् ।स्वयमेवासति तद्वेदने व्यवच्छेदनस्य किंशुकेरागार्पणवदनुपपत्तेः ।।51 ।।
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