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________________ साधर्म्यदर्शनात्" साधर्म्यसे भिन्न तो कोई सामान्य है नहीं, नित्य व्यापी स्वभाव वाले सामान्य का कहीं वेदन नहीं होने से सदृश परिणाम वाले सामान्य को जानने पर भी परामर्श रहित होने के कारण प्रत्यक्ष अव्यवसायात्मक ही है, यह कहना उचित नहीं है, यह नीला है, यह पीला है, इस प्रकार का प्रत्यक्ष में परामर्श की प्रतिपत्ति होने से वह परामर्श प्रत्यक्ष से अन्य ही है ऐसा नहीं कह सकते।स्पष्ट रूप से प्रतिभास होने के कारण स्पष्टता भी वहां प्रत्यक्ष की निकटता के कारण आरोपित ही है वास्तविक नहीं यदि यह कहते हो तो प्रत्यक्ष की चेतनता भी दूसरे चेतन के संसर्ग से आरोपित ही है वास्तविक नहीं, यह क्यों नहीं हो जायेगा? जिससे सांख्यमत का निराकरण हो कि चेतन की प्रतिपत्ति नहीं होने से यह कहना भी ठीक नहीं है परामर्श से भिन्न प्रत्यक्ष की प्रतिपत्ति नहीं होने से।।36 || ___ 'विकल्पप्रतिसंहारवेलायां तथैव तस्य प्रतिपत्तिरिति चेत्, न। सकलचित्तवृत्तिविकलवेलायां चेतनस्य तथैवानुभवात्, अत एव एवोक्तं "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थान" मिति श्रूयत एव केवलं तादृशी वेला न कदाचिदप्युपलभ्यत इति समानमितरवेलायामपि ततो यथा प्रत्यक्षादेरन्यन्न चेतनमनध्यवसितेः । तथा तत एव न परामर्शादन्यत्प्रत्यक्षमपि। अत एव परामर्शात्मकत्वं स्पाष्ट्यमेव मानसप्रत्यक्षस्य प्रतिपादितमलङ्कारे।।37 || बौद्ध कहते हैं संपूर्ण विकल्पों का प्रतिसंहार होने के समय परामर्श रहित ही प्रत्यक्ष की प्रतिपत्ति होती है, यह कहना ठीक नहीं है, संपूर्ण चित्तवृत्तियों से रहित अवस्था में चेतन के परामर्शात्मक ही अनुभव होने से ।इसलिए सांख्यो के द्वारा कहा है कि उस समय दृष्टा का अपने स्वरूप में अवस्थान हो जाता है (तदा दृष्टुः स्वरूपेवस्थान) बौद्ध कहते हैं ऐसी अवस्था केवल सुनी जाती है, कहीं देखी नहीं जाती अतः अन्यसमय में भी समान ही है।अतः जैसे प्रत्यक्षादि से भिन्न चेतन नहीं है, उसी प्रकार उसी से परामर्श से भिन्न प्रत्यक्ष भी नहीं है।अतः अलंकार में परामर्शात्मक स्पष्टता ही मानस प्रत्यक्ष के लिए बताया गया है। 137 || इदमित्यादि यज्ज्ञानमभ्यासात्पुरतः स्थिते । साक्षात्करणतस्तत्र प्रत्यक्षं मानसं मतम् ।।इति "सामने स्थित वस्तु में इदं (यह) इत्यादि जो ज्ञान अभ्यास से होता है, उसका साक्षात् करने के कारण उसे मानस प्रत्यक्ष कहा गया हैं। ' बौद्धो वदति। 2 "संहृत्य सर्वतश्चितां स्तिमितेनांतरात्मना।स्थितोऽपि चक्षुषा रूपमीक्षते साक्षजा मति" रिति। 3 सांख्यैरिति शेषः । * यथा शब्देन दृष्टांतः परामृश्यते। भिन्नं। अनिश्चयात्। । वस्तुनीति शेषः।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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