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________________ नामेति तन्निबन्धनः कश्चिदपि कियाविधिः स्यात् ।परतः प्रतिपत्तावपि 'तस्मादात्म ज्ञानस्यैव कुतोऽनुमानं, न परज्ञानस्य ततोऽपि तत्प्रकाशसंभवात् । तस्याप्रत्यक्षत्वेन तत्कृतस्य तत्प्रकाशस्याशक्यप्रतिपत्तिकत्वादिति चेन्न, आत्मज्ञानस्याप्यप्रत्यक्षत्वाविशेषात्। तन्नार्थधर्मस्यापि तस्य कुतश्चित्सिद्धिः, नचासिद्धस्यान्यथानुपपत्तिनिर्णयो यतस्तदनुमानमर्थज्ञानस्य, तदुक्तम् । "अन्यथानुपपन्नत्वमसिद्धस्य न सिद्ध्यतीति" ततोऽर्थस्य प्रत्यक्षत्वमन्विच्छता प्रत्यक्षमेतज्ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । अनुभवस्यापि तथैव भावात् ।।31।। __ अर्थप्रकाश से ही उसकी प्रतिपत्ति हो जायेगी ।ज्ञान के बिना अर्थप्रकाश की उत्पत्ति न होने का निर्णय होने से जैनाचार्य कहते हैं यह कहना भी उचित नहीं है। अर्थप्रकाश को ज्ञान का धर्म होने से उसको भी ज्ञान के समान परोक्ष होने से।यदि यह कहो कि अर्थप्रकाश के अन्यथानुपपत्ति का निर्णय ज्ञात ही है उसकी उत्पत्ति होने से तो यह बताओ कि वह परिज्ञात स्वत: है या परतः ।यदि स्वतः परिज्ञात है तो फिर ज्ञान को परोक्षत्व नहीं सिद्ध होगा, ज्ञान के धर्म अर्थप्रकाश को स्वप्रकाशक होने पर उससे अभिन्न ज्ञान को भी स्वप्रकाशक होने का प्रसंग होने से।यदि अन्य ज्ञान से उसका ज्ञान कहते हो तो वह अन्य ज्ञान क्या है? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता क्योंकि वह तो तुम्हारे यहां इन्द्रियों का संबंध होने पर होता है और ज्ञान के धर्म अर्थप्रकाश में इन्द्रियों का संबंध नहीं होता फिर उसे प्रत्यक्ष कैसे मानोगे?प्रत्यक्ष के होने पर भी अर्थप्रकाश के समान अर्थप्रकाश के धर्मी ज्ञान की भी उसी से प्रतिपत्ति हो जाने पर अनुमान व्यर्थ हो जायेगा ।अतः अर्थप्रकाश ज्ञान का धर्म नहीं है।मीमांसक कहते हैं-अर्थप्रकाश को अर्थ का ही धर्ममान लो तो जैनाचार्य कहते हैं कि उसकी भी स्वतः प्रतिपत्ति नहीं होगी, अर्थ के अचेतन होने से स्वत: प्रतिपत्ति नहीं होने से चेतन तो ज्ञान ही होता है।फिर कोई बाह्य अर्थ नहीं होगा जिसके कारण कोई कियाविधि हो ।परतः प्रतिपत्ति मानने पर भी उससे आत्मज्ञान का ही अनुमान क्यों है?परज्ञान का क्यों नहीं क्योंकि पर ज्ञान से भी अर्थप्रकाश संभव है पर ज्ञान के परोक्ष होने के कारण उसके द्वारा किये गए उसके प्रकाश की प्रतिपत्ति नहीं होने से यह कहना भी ठीक नहीं है, आत्म ज्ञान के भी पर ज्ञान के परोक्षत्व की समानता होने से। अतः अर्थधर्म की भी किसी प्रमाण से सिद्धि नहीं होती असिद्ध के अन्यथानुपपत्तिका निर्णय नहीं किया जाता, जिससे अर्थज्ञान के विषय में पूर्वोक्त अनुमान का प्रयोग हो।कहा भी है-"अन्यथानुपपत्वमसिद्धस्य न सिद्धयतीति" अतः अर्थ को प्रत्यक्ष सिद्ध करने के इच्छुक को अर्थ ज्ञान को ही प्रत्यक्ष मान लेना चाहिये ।अनुभव भी ऐसा ही होने के कारण ।।31 ।। न चैवं स्वपरविषयतया मरीचिकातोयादिवेदनस्यापि प्रामाण्यप्रसङ्गः । समीचन एव तदुपगमात् ।न च तद्वेदनस्य सम्यक्त्वं बाधकत्त्वात्। न समानविषयेण बाधस्ततः संवादेन सम्यक्त्वस्यैवोपपत्तेः |नाऽपि विसदृशविषयेण नीलज्ञानेन 'क्रियाविधेः । 2 स्वकीयस्य। परकीयस्य। उक्तप्रकारेण ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वे सति। ता-षष्ठी-सत्यस्येत्यर्थः । प्रभाकर आह।
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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