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________________ भावात् ।स्वगतात् कुतश्चिद्विशेषादिति चेत्, सः कोऽपरोऽन्यत्र कथंचिदभेदात्? इति न ज्ञानादिव्यतिरेकी जीवः संभवतीति ।।144 ।। --- यौगाचार कहते हैं, तब मुक्त होने पर जीव संपूर्ण रूप से बुद्धयादि वैशेषिक गुण से रहित हो जाता है, उनका यह कहना भी समीचीन नहीं है, जीव के बुद्धयादि स्वभाव वाला होने से बुद्धयादि का अभाव होने पर स्वयं के अभाव का प्रसंग होने से जीव बुद्धयादि स्वभाव वाला है "अह बोद्धा अह दृष्टा" इस प्रकार बुद्धयादि के समानाधिकरण रूप से प्रतिभासित होने से प्रतिपक्षी कहते हैं-समानाधिकरण के रूप में प्रत्यवभासन को तो द्रव्यत्व है सामान्य आदि में अभेद के कारण की ही प्रतिपत्ति होने से।बुद्धयादि को आत्मा का गुण होने के कारण उससे भेद होने से 'अहं बोद्धा अहं दृष्टा"आदि का प्रतिभासन मिथ्या ही है, यदि यह कहते हो तो यह बताओ कि वह जीव का ही गुण क्यों है?आकाश आदि का भी क्यों नहीं है? उसके कारण समवाय को वहां भी होने से अपने ही किसी विशेष से यदि यह कहते हो तो कथंचित् अभेद के अतिरिक्त वह अन्य कौन है?अतः ज्ञानादि से भिन्न जीव नहीं हो सकता।।144|| भवतु तर्हि तदाचिन्मात्रमेव तस्य तत्वमिति' चेत्, किमिदं चिन्मात्रमिति? 'दृश्योपलंभव्यावृत्तं स्वावभासनमिति चेत्, तदुपलंभस्य तत्स्वभावत्वे कथं ततो व्यावृत्ति रनित्यत्वापत्तेरतत्स्वभावत्वे प्रागपि कथं स तस्य?तत्स्वभावया प्रकृत्या संसर्गादिति चेत्, न तर्हि कदाचिदपि ततो व्यावृत्तिः प्रकृत्या नित्यव्यापिकतया तन्निबंधनस्य संसर्गस्य सर्वदाऽपि भावात् ।नाऽपि रागादिमलविलयपरिशुद्धो निरन्वयपरिशुद्धो विनश्वरबोधक्षणप्रबंध एव तदा स इति सांप्रतं निरन्वयविनाशित्वे बोधक्षणानामर्थकियाकारित्वस्य प्रतिक्षिप्तत्वेन प्रबंधानुपपत्तेः ।।145 || सांख्य कहते हैं- तब चिन्मात्र ही उसका स्वरूप है। आचार्य कहते हैं- यह चिन्मात्र क्या है? (दृश्योपलंभ) घटादि की उपलब्धि से रहित स्वावभासनमात्र है यदि यह कहते हो तो घटादि का ज्ञान भी उसका स्वभाव होने के कारण उससे व्यावृत्ति कैसे होगी, अनित्यत्व का प्रसंग आने से।यदि घटादि को जानने का उसका स्वभाव नहीं है, तो मुक्ति से पहले भी वह कैसे जानता है? उस स्वभाव वाली प्रकृति के संसर्ग से, यदि यह कहते हो तो फिर जीव प्रकृति से कभी अलग नहीं हो सकता, प्रकृति के नित्य और व्यापी होने के कारण उसके कारण होने वाले संसर्ग के हमेशा ही होने से।न रागादि मल के विलय हो जाने से अत्यंत विशुद्ध निरन्वय परिशुद्ध विनश्वर बोधक्षण प्रबन्ध ही उस समय वह है, निरन्वय विनाशी होने पर बोधक्षणों के अर्थकियाकारित्व का निराकरण करने से उसके प्रबन्ध की अनुपपत्ति होने से।।145 ।। ' स्वरूपं, सांख्यस्य मतमदः । - घटाधुपलभप्या वृत्तं। ३ अन्थेति शेषः। 4 मुक्तेः प्रागित्यर्थ। । प्रधानेन। नित्यत्वात् व्याप्तित्वाच्च । 100
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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