________________
स्वतस्तस्योपाध्यायसेवावैफल्यप्रसंगेनाप्रत्यायकत्वात्', नाऽपि पुरुषमात्रस्य वचनमात्रेऽपि तत्प्रसंगात् ।अस्ति प्रवचने ततस्तदर्थस्य कथंचित्प्रत्यक्षेणापरस्यानुमानेनात्यंतपरोक्षस्य च तदेकदेशैरविरुद्धतयैव' प्रतिपत्तेः। के पुनस्तेऽर्था ये तथा ते प्रतिपत्तव्या इति चेत् ।भावेष्वनेकांतः परिणामो मार्गस्तद्विषयश्च । |130||
आप्त के द्वारा कहा जाने से प्रवचन का क्या गुण है?जिससे उसकी प्रमाणता है? यह कहते हो तो किसी अन्य प्रमाण से विरोध न होने वाला अविसंवाद ही उसकी विशेषता है।इस प्रकार आप्तवचन में केवल शब्द के सामर्थ्य से ही प्रमाणता नहीं है, उपाध्याय की | सेवा को विफलता का प्रसंग होने से स्वयं शब्द के अनिश्चयात्मक होने से प्रत्येक पुरूष मात्र के वचन मात्र में भी प्रमाणता नहीं है, उक्त प्रसंग से ही।अतः प्रवचन में उनके अर्थ की कथंचित् प्रत्यक्ष से कहीं अनुमान से और अत्यंत परोक्ष अर्थ की कथंचित् अविरुद्धतया प्रतिपत्ति होने से प्रमाणता है।
वे अर्थ क्या हैं?जिन्हें उस प्रकार जानना चाहिये-पदार्थों में अनेकान्त, परिणाम, मार्ग और उनके विषय हैं। |130।।
तत्रानेकांतो नाम तेषां युगपदनेकरूपत्वं। परिणामश्च क्रमेणास्ति हि तयोर्गुणपयर्यवद्व्यमित्यादेरागमादिव प्रत्यक्षादेरपि प्रतिपत्तिश्चेतने स्वपरवेदन विकल्पाविकल्पविभ्रमाविभ्रमादिभिः स्वभावैरचेतने परसामान्यविशेषगुण गुण्यादिभिस्तदेकांतभेदाभेदयोरप्रतिपत्त्या प्रतिक्षेपेण युगपदनेकरूपसाध्यक्षतः शक्तिभेदैश्च कार्यभेदप्रतिपत्तिहेतुकादनुमानतोऽपि निर्णयपथप्रापणात् ।।131 ।।
__ अनेकान्त तो पदार्थ का एकसाथ अनेकरूपत्व है, परिणाम भी कम से हैं, गुण और पर्यायों में "गुणपर्ययवद् द्रव्यं” इत्यादि आगम के समान प्रत्यक्षादि से भी प्रतिपत्ति होती है-चेतन में स्व पर वेदन विकल्प अविकल्प, विभ्रम अविभ्रम आदि स्वभाव से तथा अचेतन में सामान्य विशेष, गुण गुणी आदि के द्वारा एकान्तरूप से भेद और अभेद की प्रतिपत्ति नहीं होने से उसका निराकरण करने से, युगपत् अनेकरूपता की प्रत्यक्ष रूप से, शक्तिभेद से तथा कार्यभेद की प्रतिपत्ति करने वाले अनुमान से भी निर्णय होने से।।131 ।।
एवं परिणामस्य, तस्यापि स्मरणप्रत्यभिज्ञानाद्यनुपातिनश्चित्स्वभावस्याचित्स्वभावस्यापि कुंडलप्रसारणाद्यनुषंगिजंगाद्यात्मन: स्वानुभावार्दैद्रियादप्यध्यक्षतोऽन्वीक्षणात्। एवमनुमानतोऽपि। तच्चेदं-क्रमादप्यनेकांतात्मा भावो युगपदप्यन्यथा तदनुपपत्तेः ।नित्यानित्यात्मकस्य ' तत्र संशयादेर्दोषादभावे 'सकृन्नानैकरूपत्वमपि
'अनिश्चायकत्वात्। 'कस्य तदर्थस्य प्रत्यक्षेणाविरुद्धतया ततः ।प्रतिपत्तिरिति संबंधः एवमनुमानादावपि योज्यं । ' ' पूर्वापराविरुद्धतया तथैवोक्तं श्रीमदाशाधरदेवै "दृष्टोऽर्थोऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानतः ।पूर्वापराबिरोधेन परोक्ष च प्रमाणते"। * सहभाविनो गुणाः, कमभाविनः पर्यायाः । 5 "सर्वथा सविकल्पत्वे तस्य स्याच्छब्दरूपता सर्वथा निर्विकल्पत्वे स्वार्थव्यवसितिः कुतः । " स्वभावस्येति शेषः ।