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________________ हमारे अनुकूल ही है, इस प्रकार वस्तुभाव के अनुसार सम्यक्ज्ञान रूपी शब्द की भी व्यवस्था की जा सकने से । बौद्ध कहते हैं- शब्द का विषय सामान्य ही है, उसी में संकेत के संभव होने से और उसके अवस्तु होने से उसको कहने वाले को अर्थवत्व कैसे हो सकता है? आचार्य कहते हैं ऐसा नहीं है । विषय के नित्य और व्यापी रूप का अभाव होने पर विषय और उनके प्रत्यक्ष के समान सदृशपरिणाम रूप के वास्तव में होने से उससे विषय के व्यवस्थापन के अभाव का प्रसंग हो जायगा । फिर विषय के अवस्तु होने पर कहीं उसके आधार से एकत्व का समारोप कैसे होगा? जिससे उसका निराकरण करने के लिये "सर्व क्षणिकं सत्वात्" इस अनुमान की कल्पना की गयी है । वह भी किसी अन्तरंग विसंवाद से उससे नहीं, यह कहना भी ठीक नहीं है "सदृशापरापरोत्पत्तिविप्रलंभान्नावधारयति” इसका विरोध होने से | अतः सदृशपरिणाम को अतात्विकता नहीं है, अनुभव से प्रसिद्ध होने से, अन्यथा विसदृश परिणाम को भी इसी प्रकार अतात्विकता होगी और उसका कारण होने से स्वलक्षणत्व को भी काल्पनिकत्व का प्रसंग आयेगा । तत्वोपप्लववादी कहते हैं- यह ठीक ही है 'भावा येन निरुप्यते तद्रूपं नास्ति तत्वतः " ऐसा वचन होने से | आचार्य कहते हैं, ऐसा नहीं है । फिर निरूप्यमाणत्व को समान होने पर भावरूप के समान अभावरूप को भी तात्विकता कैसे होगी । अपरिस्खलित ( सतत ) निरूप्यमाणत्व के कारण कहो तो फिर सदृशपरिणाम को भी तात्विकत्व हो जायेगा, दोनों में समानता होने से। अतः सदृश परिणाम को विषय करने के कारण शब्द को वस्तुविषयत्व सिद्ध हो जाता है । केवल वस्तु को विषय करने के कारण ही शब्द प्रमाण नहीं है, अतिप्रसंग होने से।अपितु आप्त के द्वारा कहे जाने से गुणयुक्त कथन तथा वक्ता के वाच्य वस्तु का यथार्थ ज्ञान होने पर अविसंवाद युक्तपना है । 1124 ।। द्वेधा, आप्तश्च विकलाविकलज्ञानविकल्पात् । विकलज्ञानस्याप्तत्वे तद्वचनस्याविसंवादकतयाबहुलं व्यवहाराधिरूढत्वात् । । 125 ।। आप्त दो प्रकार के हैं- विकल ज्ञान और अविकल ज्ञान के भेद से । विकल ज्ञान के आप्त होने में उनके वचन को अविसंवादकता होने के कारण प्रायः व्यवहार में रूढ़ होना है ।।125 ।। अविकलज्ञानश्च द्वेधा - परोक्षप्रत्यक्षज्ञानविकल्पात् । परोक्षज्ञानो गणधर देवादिस्तस्य प्रवचनोपनीतसकलवस्तुविषयाविशदज्ञानतया परोक्षज्ञानत्वात् । प्रत्यक्षज्ञानस्तु तीर्थकरः परमदेवस्तदपरोऽपि केवली तस्य निरवशेषनिर्धूतकषायदोषघातिमलोपलेपतया परमवैराग्यातिशयोपपन्नस्य सकलद्रव्यपर्यायपरिस्फुटावद्योतकारिणः प्रत्यक्षज्ञानस्य भावात् । प्रसाधितश्चायं । ततो युक्तं तदुक्तत्वात्प्रवचनस्य गुणवत्वं, अन्यथा तद्वचनस्यासंभवात् । संभव एव वीतरागस्यापि सरागवच्चेष्टासंभवादिति चेत् न, प्रयोजनाभावात् । क्रीड़नस्य च रागातिरेक' मलीमसमानसधर्मतया परमवीतरागे भगवत्यनुपपत्तेः । वैराग्यातिशयश्च सर्वज्ञः । 2 अगुणवतः । आधिक्यं । 1 90 -
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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