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________________ तयाऽपि तत्र तस्य प्रवृत्ति परस्य', तस्य वस्तुभावानुरोधितयैव प्रवृत्तेरिति चेत, अनुकूलमिदमस्माकमेवं शब्दस्याऽपि वस्तुभावारोधिनः शक्यव्यवस्थापनात्।' सामान्यमेव शब्दस्य विषयस्तत्रैव संकेतस्य संभवात् तस्य चावस्तुत्वात्तद्वाचिनः कथमर्थत्वमिति चेत् न, तस्य नित्यव्यापिरूपस्याभावेऽपि विषयतत्प्रत्यक्षयोरिव सदृशपरिणामरूपस्य तत्वत एवभावादन्यथा प्रत्यक्षेऽपि तस्यातात्विकेन ततो विषयव्यवस्थापनस्याभावप्रसंगात्। कथं वा तस्यावस्तुत्वे क्वचित्तन्निबंधन एकत्वसमारोपों यतस्तद्व्यवच्छेदार्थमनुमान परिकल्पनं सोऽप्यंतरंगादेव कुतश्चिदुपप्लवान्न तत इति चेत् न, सदृशापरापरोत्पत्ति -विप्रलंभान्नावधारयतीत्यस्य विरोधात्। तन्न सदृश- परिणामस्यातात्विकत्वं, अनुभवप्रसिद्धत्वाच्च । अन्यथा विसदृशपरिणामस्याप्येवं तन्निबंधनत्वेन स्वलक्षणस्यापि काल्पनिकत्वोपनिपातात्। चेष्टमेवेदम, भावा' येन निरूप्यंते तद्रूपं नास्ति तत्वत" इति वचनादिति चेत् न, कुतः पुनर्निरूप्यमाणत्वाविशेषे भावरूपस्येवतन्नैरात्म्यस्यापि तात्विकत्वम्?अपरिस्खलित निरूपणत्वाच्चेत्, आगतं तर्हि सदृशपरिणामस्यापि तत्त्वं तदविशेषदित्युपपन्नमेव तद्विषयतया शब्दस्य वस्तुविषयत्वं । तच्च न तन्मात्रत्वादतिप्रसंगात् । अपि चाप्तोपज्ञत्वेन गुणवत्वादाप्तश्च वक्तुर्वाच्यवस्तुयाथात्म्यवेदित्वे सत्यविप्रलंभकत्वम् ।।12411 अब आगम का वर्णन करते हैं।वह आप्तोपदेश है उसकी प्रमाणता उससे उसके विषय की प्रतिपत्ति होने से औपचारिक है, मुख्यत: विषय की प्रतिपत्ति को ही प्रमाणता है। शब्द से अर्थ की प्रतिपत्ति कैसे होती है?अर्थ के अभाव में भी शब्द के होने से, यदि यह कहते हो तो यह बताओ कि किसी ज्ञान से भी अर्थ की प्रतिपत्ति कैसे होती है अर्थ के अभाव में ज्ञान के भी होने से चन्द्रद्वय आदि के समान ।पुरूष की इच्छा के अनुसार अर्थ होने से शब्द को अर्थपना नहीं है, यह कहना भी ठीक नहीं है ज्ञान में भी यह समान होने से।ज्ञान की भी ब्रह्मप्रधान आदि के विषय में उन-उन वादियों के मतानुसार ही उसकी प्रवृत्ति होने से, वस्तु की यथार्थता से नहीं, अन्यथा स्वयं बौद्धों के द्वारा उसके निराकरण की अनुपपत्ति होने का प्रसंग होने से कारणदोष से उत्पन्न मिथ्यावभासन स्वभाव वाले ज्ञान की ही उन-उन वादियों की इच्छानुसार विषय में प्रवृत्ति होती है, सम्यक् ज्ञान की नहीं, सम्यक्ज्ञान की वस्तुभाव के अनुसार ही प्रवृत्ति होने से, यदि यह कहते हो तो यह तो सम्यग्ज्ञानस्य। 'सम्यग्ज्ञानस्य। सौगतो वदति। • "अर्थे पटयत्येनां नहि मुक्तार्थरूपतां ।तस्मात्प्रमेयाधिगतेः प्रमाण मेयरूपतेति स्वयं सौगतैरुक्तप्रकारेण .. विषयतत्प्रत्यक्षयोस्तात्विकः सदृशपरिणामोऽस्ति तथा। स मा नदित्याशंकायामाह। 'सर्व क्षणिक सत्वादिति। 'विसंवादात्। 9.अनुभवप्रसिद्धत्वाविशेषेण तात्विकत्वापत्या। । स्वेनासाधरणस्वरूपेण लक्ष्यत इति स्वलक्षणं न तथा सति विसदृशपरिणामाभावे तस्य तथा लक्षयितुमशक्यत्वात्काल्पनिकत्वोतनिपातः । ' तत्वोपप्लववादी प्राह। 89
SR No.090368
Book TitlePramana Nirnay
Original Sutra AuthorVadirajsuri
AuthorSurajmukhi Jain
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size14 MB
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