SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की सुविधा दें, यही पेरी प्रार्थना है।" "हमारी सारी उम्मीदें तब उल्टी हो गयीं।" "यह तो छोटे बच्चों की तरह सोचनेवाली बात है। प्रबुद्ध व्यक्ति ऐसा नहीं बोलते।" "तुम मेरी धर्मपत्नी हो न?" "सन्निधान को इसमें शंका क्यों हुई?" "अग्नि को साक्षी देकर 'धर्म च अर्धे च कामे च' आदि वचन दिया था; सो सब भूल गयीं?" "बचन दिया था सन्निधान ने । उसके पालन में दाम्पत्य का सम्पूर्ण फल प्राप्त होने तक, मैंने हर कदम पर सन्निधान का साथ दिया है । सहधर्मिणी बनी रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया है। महामातृश्री और प्रभुजी ने जैसे तीन पुत्रों और एक पुत्री को इस संसार को उपहार में दिया, वैसे ही मैंने भी अपना धर्मपालन कर सन्तान प्रदान की है।" __ "वह सब ठीक है। इतने ही से तुम्हारा कर्तव्य पूरा हो गया? उस दिन हमारे जन्मदिन के अवसर पर जब हम विवाहित नहीं थे, तुमने तब मेरी माताजी को वचन दिया था, भूल गयीं? वचन दिया था कि मेरे मन को दुःख न दोगी । वह अपना वचन आज पालन करने योग्य नहीं रह गया?" "महामातृश्री को जो बचन दिया, उसका मैंने अक्षरश: पालन किया है। अब मेरा यह शरीर आपको उपभोग के लिए न मिला तो मुझपर बचनभ्रष्ट होने का आरोप क्यों लगाते हैं ? इस शरीर का उपभोग मात्र आपका लक्ष्य हो और मेरी इच्छा-अनिच्छा का यदि महत्त्व न हो तो यह शरीर आपका है, जैसा चाहें आप इसका उपयोग कर लें।" उसके स्वर में वेदना भर आयी थी। बिट्टिदेव जल्दी-जल्दी द्वार की तरफ बढ़ गये और खुद ही किवाड़ खोलकर बाहर निकल गये। जो कुछ हुआ शान्तलदेवी उस पर विचार करती हुई, और यह सोचती हुई कि अपनी ओर से गलती शायद हुई हो, पलँग पर चित हो लेट गयीं 1 कब नींद आ लगी, पता ही नहीं। दूसरे दिन जब जागी तो बहुत विलम्ब से। सेविका ने जागते ही रानी राजलदेवी के दर्शनाकांक्षी होकर दो बार आकर लौटने की खबर सुनायी। "उन्हें बुला लाओ। मैं अभी आयी।" कहकर शान्तलदेवी प्रात:कालीन क्रियाओं से निवृत्त होने के लिए चली गयीं। सब कामों से निबटकर लौटौं, तो देखा कि राजलदेवी आकर वहाँ बैठी हैं। शान्तलदेवी के अपते ही खिले मुंह से कहने लगीं "सन्निधान के साथ यादवपुरी जाने की पुझे आज्ञा मिली है। यात्रा के लिए सब 92 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy