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के समक्ष दास की विनती है। मैं राजमहल का एक गुप्तचर हूँ। राजधानी में कहाँ क्या होता है, राजमहल को इसकी जानकारी देना मेरा कर्तव्य है। मैं और मेरे अधीन काम करनेवाले नौकर हमारे अधिकारी मायण की आज्ञा से अभी दो-तीन दिनों से राजधानी के सभी मुहल्लों और नवागत अतिथियों के लिए निर्मित आवासी एवं बाजार आदि सभी जगह घूमते रहे । इस तरह घूमते-घामते हमने जिन बातों का संग्रह किया है, उन्हें महासन्निधान के समक्ष निवेदन किया है। वह कल सम्पन्न होने वाले उत्सव से सम्बन्धित विषय है। एक तरह से अन्दर-अन्दर कुढ़न और कुछ लोगों में, खासकर श्रीवैष्णवों में, असन्तोष जान पड़ा। मेरे और मेरे सहायकों को यह बात मालूम हुई है कि इस प्रतिष्ठा-महोत्सव को अश्रेयस्कर सति से सम्पन्न कराने का षड्यन्त्र रचा गया है। इसका तीव्र विरोध करना ही चाहिए, आदि-आदि बातें हमने और हमारे सहायकों ने सुनी हैं। इसलिए उन लोगों को इस सभा में उपस्थित होने के लिए आमन्त्रित किया गया है। अभी सन्निधान उन्हीं को बुलाकर आदेश देंगे कि वे सभा के सामने उपस्थित होकर अपनी बात को स्पष्ट करें। वे यहाँ उपस्थित होकर सारी बातें यथावत् प्रस्तुत कर सकते हैं। महासन्निधान आश्वासन देते हैं कि अपराधी चाहे कोई हों, उनके स्थान-मान की परवाह न कर, उन्हें दण्डित करेंगे। इसका लक्ष्य और उद्देश्य कुछ और नहीं, आचार्यजी के आदेश के अनुसार, उनकी इच्छा पूर्ण करने के ही उद्देश्य से, इस मन्दिर का निर्माण किया गया है। धर्मश्रशा कार काना ही इसका साला है की स्थिति में धर्मच्युति के लिए यहाँ स्थान ही नहीं है। सन्निधान से यह स्पष्ट आश्वासन मिला है । आम तौर पर सभी राजसभाओं में पट्टमहादेवीजी को महासन्निधान के साथ ही रहना चाहिए। परन्तु यह विधर्मियों द्वारा धर्मच्युति होगी-ऐसी बात उठ खड़ी हुई है। जैनमतावलम्बी बनी रहकर, अपने जीवन-यापन की इच्छा रखनेवाली पट्टमहादेवीजी, मेरे वक्तव्य के पूरा होने के पश्चात् अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र विराजेंगी।" वक्तव्य पूरा कर चाविमय्या ने झुककर प्रणाम किया।
पट्टमहादेवीजी अपना आसन छोड़कर, दूर पर के एक दूसरे आसन पर जा बैठी।
प्रधानजी उठ खड़े हुए। उधर तिरुवरंगदास ने रानी लक्ष्मीदेवी की ओर देखा और सन्तोष व्यक्त किया। मन ही मन कहने लगा,"बेटी हो तो ऐसी। रात भर अच्छी तरह कान भरे होंगे। सब-कुछ मेरे अनुकूल ही हो रहा है।"
"सन्निधान के सम्मुख मेरी एक विनती है, '' गंगराज ने कहा।
"कहिए। जब केवल दो-चार दिन रहने आये व्यक्तियों को ही बोलने की स्वतन्त्रता दी गयी है, तो आपको, जो हमारे राज्य के प्रधान हैं, स्वतन्त्रता नहीं होगी?" बिट्टिदेव ने कहा।
"सनिधान ने अनुमति दी, इसके लिए मैं कृतज्ञ हूँ। लोगों को आश्चर्य होता होगा कि इस सभा को बुलाने का कारण प्रधान होकर भी मुझे मालूम नहीं हुआ। जहाँ
12 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार