SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "सचित्र, दण्डनायक, मैं, तुम और धर्मदर्शी। कुछ प्रमुख पौर भी रहेंगे। रानी और जिन्हें चाहें, बुलवा सकती हैं।" "असल में बात क्या है सो मुझे मालूम नहीं, ऐसी हालत में और लोगों को बुलवाने की सलाह भी क्या दे सकती हूँ। अलावा इसके, सचिव नागिदेवगा जी रहेंगे तो वे अकेले ही दस लोगों के बराबर होंगे। वे सभी बातें जानते हैं।" "ठीक । तो अब हम आराम करने जाएँ ?'' शान्तलदेवी उठ खड़ी हुई। सोने का समय भी हो गया था। वे अपने-अपने विश्रामागार में चली गरीं। रानी लक्ष्मीदेवी के मन में यह बात खटकती रही कि आचार्यजी के शिष्य एम्बार के वापस आने की बात मालूम होने पर भी उसके पिता ने उसे क्यों नहीं बतायी। इसे अपने पिता के बुढ़ापे की भूल कहकर, आन की रक्षा करने के विचार से, परदा रखा। फिर भी पिता के प्रति उसके मन में असन्तोष ही रहा। उसके साथ, पट्टमहादेवीजी की एक और बात-'तुम्हारे पीठ-पीछे कोई निर्णय हो जाए और वह तुम्हारा ही निर्णय कहकर प्रचारित हो, तो फिर मुश्किल होगी'-काँटे की तरह उसके मन को चुभ रही थी। वह इस बात को हजम नहीं कर सकी। मेरे पीठ-पीछे निर्णय करें और मेरा नाम लें, ऐसा साहस किसे हो सकता है? ऐसा करने का उद्देश्य क्या हो सकता है ? चुप रहूँ तो भी ये लोग मेरा नाम क्यों घसीटते हैं? आदि-आदि सोचने लगी। रात को पता नहीं कि कब आँख लग गयी और सवेरा हो गया। सुबह नियोजित रोति से सभा बैठी। सभी उपस्थित सभासदों को पिछले दिन रात ही में खबर मिल चुकी थी। परन्तु पट्टमहादेवीजी के आने की खबर सुबह राजमहल में आने के बाद ही सबको मिली। आम तौर पर नागिदेवण्णाजी जो सभा बुलाते थे उसमें विशेष पेचीदगियों नहीं रहा करती थीं। केवल दो बातें रहा करती-एक आचार्यजी के कार्यकलापों से सम्बन्धित और दूसरे राजधानी से प्राप्त आदेश से । इसलिए लोग सोच-विचार करके सभा में नहीं आया करते थे। आज भी ऐसे ही आये थे। सुबह की सभा हो तो उसमें नाश्ते का प्रबन्ध भी हुआ करता था। बहुत से तो इस नाश्ते के आकर्षण के कारण ही आते थे। सदा की तरह पहले नाश्ते से बैठक का कार्यक्रम आरम्भ हुआ। जब लोग नाश्ते का स्वाद ले रहे थे तभी पट्टमहादेवी और रानी लक्ष्मीदेवी दोनों का आगमन हुआ। "नाश्ता आराम से हो।' पट्टमहादेवी ने कहा। नाश्ते में लीन सभासदों के लिए यह ध्वनि अनपेक्षित थी। कोनेय शंकर दण्डनाथ और तिरुवरंगदास ने सिर उठाकर आवाज जिधर से आयी थी, उधर देखा। दण्डनाथ ने उठने का प्रयत्न किया। "रहने दीजिए, बैंठिए. उठने की जरूरत नहीं। इन औपचारिकताओं के लिए दूसरी जगह है।'' पट्टमाहादेवी ने कहा। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 77
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy