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________________ भलाई करना तो दूर, उनके बारे में सोचते तक नहीं। मैं केवल अपने ही बारे में नहीं कह रहा हूँ, दण्डनायक बिट्टियष्णा को सँभालकर पाल-पोसकर किस तरह उन्हें लायक बनाया है, यह प्रत्यक्ष है। चट्टलदेवी और मायण के जीवन को कितना सँवारा और सुन्दर बनाया, देखिए । बूतुगा के ही जीवन को देख लीजिए । यो ऐसों की एक बहुत बड़ी सूची ही मैं पेश कर सकता हूँ। निम्न-से-निम्न स्तर के एक साधारण सेवक से लेकर उच्च-से-उच्च अधिकारियों तक सभी को समभाव से देखना, प्रत्येक के हित का विचार कर सबसे एक-सा व्यवहार करना, इस राजमहल का वैशिष्ट्य है। ऐसे राजपरिवार के साथ सम्पर्क होना मेरे जीवन का परम सौभाग्य है। "राजदम्पती चाहते तो अपनी बेटी का विवाह एक राजकुमार से कर सकते थे, युवराज का विवाह किसी राजकुमारी से कर सकते थे। लेकिन नहीं, इस तरह के दिखावे या प्रदर्शन से नहीं, आत्मीयता के प्रतिफल के रूप में जो स्थान-मान प्राप्त होगा, वह बहुत ऊंचा है, इसे प्रमाणित कर दिखाया है। प्रजाजन की रक्षा तय मान रहित जीवन-यापन कर सकने के लिए जो आर्थिक व्यवस्था इस राज्य ने की है, ऐसी अन्यत्र कहीं भी नहीं। साधारण-से-साधारण व्यक्ति को भी आत्मगौरव के साथ, गण्यमान्य होकर जीने के लिए इस राज्य में सभी सुविधाएँ उपलब्ध हैं। साहित्य एवं कला को यह राजमहल जो प्रोत्साहन दे रहा है। उससे स्थायी मूल्य की कृतियाँ निर्मित होकर नूतन विधाओं की ओर संकेत कर रही हैं, यह प्रत्याक्ष है। राजधानी में अभीअभी निर्मित होयसलेश्वर युगल मन्दिर इन महाराज और पट्टमहादेवीजी का नाम अमर बनाते हुए, उनकी अन्य-धर्म सहिष्णुता के स्थायी साक्षी बन गये हैं। क्योंकि इन दोनों मन्दिरों में प्रतिष्ठित महादेव होय्सलेश्वर और शान्तलेश्वर के नाम से अभिहित हैं। इस तरह से महादेव मन्दिर को अभिहित करने की स्वीकृति देकर वे स्वयं जनता के लिए एक महान् ज्योति स्वरूप बन गये हैं। मतान्ध जनों के लिए यह मार्गदर्शक हैं। यह राज्य मानवीयता के महान् गुणों से विभूषित होकर प्रगति कर रहा है। सभी को इस राज्य की प्रगति के कार्य में सब तरह से यत्नशील रहना और इस गौरव को बनाये रखने के लिए सतत उद्यम करते रहना चाहिए। मैं और मेरी सन्तान, इतना ही क्यों, मेरे सारे वंश को पीढ़ियों इस राजघराने की सेवा सदा करते रहने को तैयार हैं। भगवान् को हमने प्रत्यक्ष नहीं देखा है। हम शिल्पी हैं। पण्डित और द्रष्टा लोगों ने जैसा वर्णन किया है तथा आगमशास्त्र में जैसा बताया है, उसके अनुसार भगवान् की कल्पना करके हम मूर्ति-निर्माण किया करते हैं, और अपनी उस कृति पर गर्व करते हैं। हममें कितने ऐसे हैं जिन्होंने साक्षात् भगवान को देखा-पहचाना है? मेरे लिए तो पमहादेवीजी ही साक्षात् भगवत् रूप हैं। महाराज तो हमारे लिए प्रत्यक्ष देव ही हैं। मेरे जीवन के पन्नों को स्वर्णाक्षरों में अंकित करनेवाले इन महानुभावों के प्रति मैं किस ढंग से अपनी कृतज्ञता समर्पित करूँ? मुझे अपनी अल्पमति में जो आता है उसे निवेदन कर देता हूँ। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :; 417
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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