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________________ सोने के परात में हीरे जड़ी मूलदार तलवार लेकर सेवक उपस्थित हुआ। महाराज ने उस तलवार को उठाकर चिट्टियण्णा को भेंट की। हर्षोद्गारों और तालियों की ध्वनिं के बीच विट्टियणा ने घुटनों के बल झुककर उसे स्वीकार किया और उसे माथे से लगाया। जकणाचार्य उठे। महासन्निधान से स्वीकृति लेकर अपनी अन्तरंग भावना को उनके समक्ष निवेदन करते हुए बोले, "मैं एक कारीगर हूँ। मुझे लोग कलाकार भी कहते हैं । चाहे कोई कुछ कहकर बुलाए, इतना स्पष्ट है कि मैं वक्ता नहीं हूँ। मेरी सारी बुद्धि क्षमता पत्थर छैनी और हथोड़ी के ही चारों ओर चक्कर कटती रहती है। पत्थर को हम निर्जीव कहते हैं, क्योंकि वह जड़ है, गति शून्य है। ऐसे पत्थर में रूप विन्यास करते हैं। साहित्य केवल शब्दों के चमत्कार के द्वारा शून्य में रूप का सृजन कर हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कराता है। हम शून्य में कुछ भी चित्रित नहीं कर सकते, कुछ सृजन नहीं कर सकते। पत्थर को हम आकृति दे सकते हैं; परन्तु हम हैं कि मानव को ही पत्थर बना डालते हैं, स्वयं भी अपनी मानवीयता को लुप्त कर पत्थर ही बन जाते हैं। एक समय था कि जब मैं इस शरीर को धारण कर, मानवीयता को खोकर, ऐसा ही पत्थर हो गया था। ऐसे एक मौके पर मैं इस राजमहल के सम्पर्क में आया। यहाँ रहते हुए मैंने वास्तविक मानवीय मूल्यों को समझा, मानव बना। मैं एक साधारण मनुष्य हूँ। इस राज्य में मुझ जैसे करोड़ों लोग हैं। अगर मैं वैसे ही पत्थर ही बना रहकर धीरे-धीरे चूर-चूर हो मिट्टी में मिल जाता तो कोई नुकसान नहीं होता । मैंने काफी भ्रमण किया है, अनेक जगहें देखी हैं। पेट भरने के लिए बहुत परिश्रम भी किया है। परन्तु मैंने किसी को स्वयं को पहचानने का मौका नहीं दिया। जहाँ भी मैं देखता कि लोग मुझे पहचानने की कोशिश कर रहे हैं, मैं वहाँ से खिसक जाता । भगवान् के स्वरूप महापुरुष श्री रामानुजाचार्य जैसे महान् व्यक्ति को भी में धोखा देकर उनके पास से खिसक गया था। सचिव नागिदेवण्णा जी इसके साक्षी हैं। ऐसा था मैं। पट्टमहादेवीजी की कृपा से उनके द्वारा निरूपित मानवीय मूल्यों को पहचानकर मैंने यह बात सीखी कि अपने विचारों को ही सही मान बैठने का आग्रह छोड़, दूसरों के भी विचार सही हो सकते हैं, यह सोचना चाहिए। परिणामतः जिन पत्नी पुत्र को मैं एक धोखा समझने लगा था, वे ही मेरे लिए नित्य सत्य प्रतीत होने लगे। मेरा विनष्ट पारिवारिक जीवन फिर से सुखमय बन गया। मेरे पारिवारिक जीवन को सुखी न बनात तो पट्टमहादेवीजी का क्या नुकसान होता ? कुछ नहीं। अभी इससे उन्हें कोई लाभ भी नहीं। मगर इससे मेरा लाभ हुआ। " पट्टमहादेवीजी और राजमहल की यही रीति रही हैं कि राज्य की आम जनता को सदा लाभान्वित करते रहें। मैंने कई राज्यों में घूमकर देखा है। मेरा अनुभव है कि किसी भी राज्य में ऊँचे पद स्थान में रहनेवाले महानुभाव निम्न वर्ग के लोगों की पट्टमहादेवी सान्तला : भाग चार 416 ::
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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