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इतने में वहाँ स्थपति हरीश आये । एक अपरिचित को देखकर वे वहीं रुक गये।
"आइए, स्थपसिजी ! हम स्वयं कहला भेजना चाहते थे। ये स्थपति जकणाचार्यजी के पुत्र हैं, डंकणाचार्य। भूल गये क्या? क्रीडापुर के केशव मन्दिर का निर्माण कार्य पूरा हो गया है, यह समाचार देने आये हैं। साथ ही उसके प्रतिष्ठा-महोत्सव के लिए आमन्त्रण देने भी।..और ये इस युगल मन्दिर के स्थपति ओडेयगिरि के हरीशजी हैं।" शान्तलदेवी ने कहा।
"मेरे पिताजी हमेशा इन स्थपतिजी के बारे में बताते रहते हैं।" इंकण ने कहा।
"बताये बिना चुप कैसे रह सकते हैं। मेरे हठीले स्वभाव को कोई यों ही भूल जाएगा?"
"उन्होंने ऐसा कभी नहीं कहा।" "तो फिर?"
"आपने जो रेखाचित्र बनाया था उसे वे अपने पास अब भी रखे हुए हैं। कहते थे, 'ऐसी छोटी उम्र में भी उनमें कितनी कल्पना-शक्ति रही, जानते हो?' इतना ही नहीं, उस रेखाचित्र में आपकी पना-शैली और नापा-निन्म की निशेषाओं को बताते हुए बार-बार प्रशंसा किया करते हैं। आप भी क्रीडापुर पधारेंगे तो वे बहुत ही खुश होंगे।"
"हमने इस बारे में इनसे पहले ही बातचीत कर ली है। हमने कहा है कि ये भी हमारे साथ इस समारम्भ में चलें। अब तो हमें भी कुछ मानसिक शान्ति है। सन्निधान ने जयकेशी से युद्ध करके विजय प्राप्त की है। क्रीडापुर के मन्दिर की प्रतिष्ठा के बाद हम जब लौटेंगे तो इस विजयोत्सव का आयोजन करेंगे। उस समय आप और आपके माता-पिता हमारे साथ ही आएँ।" शन्तलदेवी ने कहा। ___"अब पिताजी क्रीडापुर से आने की बात को शिरोधार्य भी कर लेंगे। वेलापुरी को पूल पूर्ति को दोषयुक्त शिला लेकर बनाया था, इस पाप के प्रायश्चित्त के रूप में उन्होंने क्रीडापुर के इस मन्दिर का निर्माण किया है। इससे उन्हें पुण्य-लाभ होगा, ऐसा पिताजी मानते हैं।" डंकण ने कहा।
ऐसा ही निश्चय हुआ। दूसरे दिन डंकण क्रीडापुर लौट गया।
पंचमी के मुहूर्त के लिए, चौथ के दिन राजदम्पती के क्रीडापुर पहुँच जाने का निश्चय हुआ था। इस यात्रा में अकेले हरीश बाहर के व्यक्ति थे। राजमहल से अन्य किसी को इसमें सम्मिलित नहीं होना था। क्रीडापुर में मूर्ति-प्रतिष्ठा तक केवल दो दिन हो रहना था। सारा राजपरिवार और फिर भारी संख्या में लोगों को साथ जाने पर वहाँ सबके ठहराने की व्यवस्था करना कठिन होगा, इसलिए भी ऐसा निर्णय किया गया था। यों तो विनयादित्य साथ चलने के लिए बहुत उत्सुक था। उसने अपनी इच्छा भी प्रकर की थी, पर शान्तलदेवी ने उसे भी मना कर दिया था।
388 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार