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________________ मायण वगैरह जो व्यगिरि की ओर गये थे, लौटे नहीं थे। इसी बीच राजदम्पती युगल मन्दिरों की कार्य-प्रगति जानने के इरादे से उधर गये हुए थे। तभी वहाँ डंकाय आया । पहले वह सीधा राजमहल में गया था। पता लगने पर वह यहीं चला आया था। आते हो उसने राजदम्पती को प्रणाम किया। "ओह, छोटे स्थपति!" बिट्टिदेव ने आश्चर्य प्रकट किया। डंकण ने मुस्कराते हुए पुन: सिर झुकाकर प्रणाम किया। "इस बार-कौन-सा पत्थर बिगड़ने जा रहा है ?" बिट्टिदेव ने मुस्कराते हुए कहा। "तब मैं अन्वेषक था, अब दास हूँ।" "माने?" "मेरे पिताजी ने हमारे गाँव क्रीडापुर में केशव मन्दिर का निर्माण कार्य पूरा कर लिया है। उसकी प्रतिष्ठा के आयोजन के लिए सन्निधान की सुविधा जानकर मुहूर्त निश्चित करने और मूर्धाभिषिक्त (राजदम्पती) को निमन्त्रित करने पिताजी द्वारा आपको सेवा में भेजा गया हूँ।" "हमने पहले ही वचन दे दिया था । मुहूर्त का निश्चय स्वयं कर लें। हम जरूर आएंगे। विष्ट्रिदेष ने कहा। "आनेवाली पंचमी का दिन इस कार्य के लिए बहुत शुभ है। राजदम्पत्ती उस अवसर पर पधारें तो हमारे लिए यह परम सौभाग्य की बात होगी।" "अवश्य आएँगे।" "धन्य हुआ। अब आज्ञा हो..." "कोई बाधा नहीं। मगर कल जाना।। पट्टमहादेखी शान्तला : भाग चार :: 387
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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