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नियक्त कर देते हैं तो वह नियुक्त जीवन भर के लिए होती है। निवृत्ति शब्द से हम अपरिचित हैं। इसलिए हम आपकी विनती को मानेंगे कैसे?"
"सन्निधान कृपा करें। हमारी आदरणीया पट्टमहादेवीजी ने हम पर विश्वास रखकर अनुग्रह किया। परन्तु हम अपने कर्तव्य को अच्छी तरह नहीं निभा पाये । हमने लापरवाही की। ऐसी दशा में हम भी तो अपराधी ही ठहरे। यह बात हमारे हृदय में काँटे की तरह चुभती रहेगी। इस परिस्थिति में हमें मानसिक शान्ति मिलनी सम्भव नहीं। इसलिए कृपा करनी होगी।"
"देखिए, प्रधान गंगराजजी के बाद आप ही इस राज्य में सबसे बड़े पदाधिकारी हैं। उसमें भी खास बात यह है कि हमारे सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व से ही आप यादवपुरी में हैं। इस वजह से आपके साथ हमारी आत्मीयता स्थायी हो गयी है। अब इस बारे में बिना पट्टमहादेवीजी से पूछे हम कुछ नहीं कर सकते। आप चाहें तो स्वयं पट्टमहादेवीजी से मिलकर विचार-विनिमय कर लें। उन्हें फुरसत हो तो अभी यहीं बुलवा लेते हैं।"
"मैं किस मुंह से उन्हें जवाब दूंगा? ऐसी परिस्थिति श्रेयस्कर नहीं होगी। मैं उनकी रीति-नीति को जानता हूँ और वे क्या कहेंगी, यह भी समझता हूँ। वे गुस्सा करेंगी तो उनका सामना किया जा सकता है, लेकिन उनके क्षमागुण का स्मरण हो आता है तो दिल काँप उठता है।"
"आप अकारण कुछ सोचकर इस तरह बोल रहे हैं। आप इस राज्य की सेका तीन दशाब्दियों से करते आ रहे हैं । इस राजमहल की यह नीति बन गयी है कि कितना ही बड़ा कार्य क्यों न हो, आपको आप पर विश्वास और भरोसा रखकर बताया जा सकता है। आपका बरताव हो इसका कारण है। हमारे या आपके मन में किसी भी तरह का कडुबापन नहीं रहे। यदि ऐसा रहा तो सारा जीवन कडुवाहट में ही गुजरेगा।" कहकर बिट्टिदेव ने घण्टी बजायी। एक दरबान अन्दर आया। बिट्टिदेव ने आदेश दिया, "फुरसत हो तो पट्टमहादेवी पधारें।" दरबान चला गया। फिर बिट्टिदेव बोले, "बैठिए, पट्टमहादेवीजी आ जाएँ।"
अब नागिदेवण्णा लाचार थे, बैठ गये। कुछ कहने की मुद्रा में महाराज की ओर देखा। इतने में दरबान आया और बोला, "पट्टमहादेवीजी पधार रही हैं।" और वह एक ओर खड़ा हो गया। नागिदेवण्णा उठ खड़े हुए। शान्सलदेवी आयीं। नागिदेवण्णा ने झुककर प्रणाम किया। दरबान किवाड़ लगाकर बाहर चला गया।
"वैठिए, मन्त्रीजी" कहती हुई प्रति-नमस्कार करके पट्टमहादेवीजी महाराज के पार्श्वस्थ आसन पर बैठ गयीं। बुलवा भेजने वाले महाराज स्वयं बोलेंगे, यही सोचकर वे मौन रहीं।
नागिदेवण्णाजी बहुत संकोच के साथ बैठे रहे। अन्त में शान्तलदेवी ने पूछा,
384 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार