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________________ चली जाती। उन्हें विनयादित्य के मन की बात मालूम थी, इसलिए उन्हें डर था कि वह कुछ कह बैठे तो उसका परिणाम क्या होगा, इसलिए वे कुछ आतंकित-सी थीं। उन्होंने सोचा कि आज की इस सभा का कार्य अब स्थगित कर देना चाहिए। यही विचार कर बगल में बैठे महाराज के कान में कुछ कहा। न्यायपीठ ने महाराज और पट्टमहादेवीजी को कुछ परामर्श करते देखा तो वे थोड़ी देर मौन हो रहे । बिट्टिदेव ने कहा, "कण्णमा के वक्तव्य से कोई निर्णय स्पष्ट न होने पर भी, यह ठीक लगता है कि उन लोगों को जिन्हें वह पहचान सकता है, यदुगिरि और तलकाडु से यहाँ बुलवाएँ। इसलिए कण्णमा को मायण और चाविमय्या अपने साथ दोनों वह हो जाएँ को इस दर्भ में पहचान सकता है, उन सब को, चाहे स्त्री हो या पुरुष, यहाँ लिवा लाएँ। इनकी सहायता के लिए तलकाडु के व्यवस्था अधिकारी के पास राजमहल से पत्र भिजवा दें। इन लोगों के लौटने तक यह न्याय- विचार स्थगित रहे।" महाराज की इच्छा के अनुसार गंगराज ने न्याय विचार सभा को स्थगित कर दिया। उस दिन की सभा विसर्जित हुई। विनयादित्य एक ओर गुस्से से उबल रहा था तो दूसरी ओर खुश भी हो रहा था। खुशी इस बात की कि उसके विचार में इस न्याय विचार से सत्य की नींव दिखाई पड़ने लगी थी। धर्मदर्शी और छोटी रानी एक तरह से किंकर्त्तव्यविमूढ़ से लग रहे थे। बल्लाल और छोटे बिट्टिदेव कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखा रहे थे, फिर भी ये सोचने लगे कि आज जो ईर्ष्या-भाव माँ पर है, वह हम पर भी होने लगा तो क्या करना होगा ? नागिदेवण्णा जी बहुत खिन्नमनस्क हो रहे थे। दूसरे दिन सुबह उन्होंने सन्निधान से भेंट की। स्वस्थ और तगड़े नागिदेवपणा आज देखने में कमजोर से लग रहे थे। बिट्टिदेव ने कहा, "बैठिए मन्त्रीजी, किसी खास विषय पर चर्चा करनी थी ?" "हाँ, स्वयं अपने बारे में।" कहकर मौन खड़े रहे नागिदेवण्णाजी | 'क्यों, मौन क्यों हो गये ? क्या बात है ?" "मैंने राजमहल का नमक खाया है। अब तक मैं राजमहल का पूरी तरह विश्वास - पात्र बना रहा। मेरा समूचा जीवन उसी नींव पर खड़ा हुआ था। मेरी प्रवृत्ति और नीति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ, पर कार्यदक्षता में कमी आ गयी है। यह बात अब इस न्याय विचार से स्पष्ट हो गयी है। इसलिए मुझे निवृत्ति मिले तो शेष जीवन भगवान् के ध्यान में गुजार देना चाहूँगा ! " "आपकी दक्षता में कमी है, यह बात किसने कही ?" 11 'किसी के कहने की आवश्यकता नहीं। मैं स्वयं अनुभव कर रहा हूँ।" 'आत्म-निरीक्षण करना अच्छा है, यह बात पट्टमहादेवीजी कहती रहती हैं। आपने इसे साध लिया है। हम यदि किसी को एक बार राजमहल में किसी पद पर पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार 383 "
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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