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"तलकाटु से लोग आ जाएँ। बाद में मायण और रानीजी से विचार-विमर्श करके आगे के कार्यक्रम का निश्चय कर सकते हैं।"
"यह ठीक है। ये बातें अभी अप्पाजी को बता देना उचित है। उसे कुछ अनावश्यक शंकाएँ हैं। उन्हें उसके मन से दूर कर देना होगा।"
"तो अप्पाजी को अभी बुल्लाऊँ?" "हाँ, बुलवाइए।" नौकरानी जाकर तुरन्त अप्पाजी को बुला लायी।
शान्तलदेवी ने सारा समाचार अप्पाजी को बताया और कहा, "देखो अप्पाजी, अब रानी लक्ष्मीदेवी एक तरह से भयग्रस्त होकर आ रही हैं। उनके पन को दिलासा देना हमारा कर्तव्य है। सामान्य व्यक्ति को अपनी हत्या के षड्यन्त्र का समाचार सुनकर किस तरह का भय उत्पन्न हो सकता है, इसका अनुमान तुम नहीं कर सकते हो।"
"मैं कोई छोटा-सा बच्चा नहीं हूँ। मुझे भी मालूम है। इतना हो नहीं, उनकी यह कल्पना भी हो सकती है कि इस समो पदयन्त्रका मागण हम हैं।" उसने कहा।
"जो नहीं हैं, उसको कल्पना नहीं करनी चाहिए, अण्याजी । समझ लो, यदि मेरी या तुम्हारी हत्या का षड्यन्त्र हुआ है. तब तुम क्या सोचोगे?"
"सोचने को और क्या हो सकता है, माँ आप और आपकी सन्तान से द्वेष करनेवाले इस राज्य में केवल दो ही व्यक्ति हैं। वह धर्मदर्शी और वह रानी । सिवा इन दोनों के और कोई षड्यन्त्र नहीं कर सकता।"
"मेरी हत्या से उनको क्या लाभ?"
"सब पर आपका प्रभाव बहुत है। आपके प्रेम और आदरपूर्ण व्यवहार के कारण सभी आपको अत्यन्त गौरव को दृष्टि से देखते हैं। महासन्निधान भी आपका कहना मानते हैं। आप ही अगर नहीं होगी तो लोगों को अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार अपनी तरफ कर सकते हैं। विद्वेष का वीज बोने के काम में आप बाधक हैं। आप नहीं होंगी तो वह बाधा न रहेगी। तब उन्हें अपना स्वार्थ साध लेने में सहूलियत हो जाएगी।"
"तो क्या तुम यही कहना चाहते हो कि प्रेम और आदर की भावना तभी तक रहेगी जब तक मैं जीवित है?"
"हाँ, माँ । मनुष्य बहुत ही तुच्छ है। धन के लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। ऐसे नीच व्यक्तियों से राजा अपना बचाव कैसे कर सकता है, इस विषय को कौटिल्य का अर्थशास्त्र बहुत अच्छी तरह समझाता है। किस पर विश्वास करना और किस पर न करना तथा अविश्वसनीय व्यक्ति का पता कैसे लगाना, आदि सभी बातों का विश्लेषण अर्थशास्त्र में है।"
"उस समय से अब तक बारह-तेरह सदियाँ गुजर चुकी हैं। मनु के धर्मशास्त्र
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 323