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"फिर तो अब की बार जीत हमारी ही होगी।" । 'क्या मतलब? क्या राजलदेवी कुशल सैन्य-संचालक बन गयी हैं?"
"ऐसा नहीं । युद्ध एक तरह से द्यूत है । द्यूतदेवी के आकर्षण में जो पहले आगे बढ़ता है वह उसके गले में ही जयमाला डालती है । राजलदेवी पहली बार रणक्षेत्र में जा रही है इसलिए हमें विजय मिलनी ही चाहिए।'
"तो यही सलाह है कि राजलदेवी को युद्ध-क्षेत्र में ले जाएँ?" ।' हां।"
"ठीक। हम स्वयं ही सिंगिमय्या से विवाह की बात छेड़ें या वे ही प्रस्ताव रखेंगे?"
"हरियला के विवाह के समय ही एक तरह से तय हो चुका था। घर की लड़की घर रही आये तो इसमें संकोच क्यों ? निगमान भी दुविधा में न पड़ें : माजी को सा लेते जाएँ तो काम आसान हो जाएगा। यदि सन्निधान चाहें तो मैं भी चल सकती हूँ।"
"परन्तु यहाँ अराजकता फैल जाएगी। हम स्वयं इस बात का निश्चय कर लेंगे। तुम्हारी सलाह के अनुसार बुजुर्ग हेग्गड़ेजी भी साथ रहेंगे। कुमार बल्लाल की बात तय हुई। अब छोटा बिट्टिदेव ?"
"वह सब सन्निधान के दिग्विजय से लौटने पर।" "जब भी हो। फिर भी पट्टमहादेवी की दृष्टि में कोई कन्या है?"
"सन्निधान के ही नाम पर उसका नाम है न? सन्निधान की ही तरह उसने कन्या को चुन लिया हो तो?''
बिट्टिदेव जोर से हँस पड़े । शान्तलदेवी भी उनके साथ हंसने लगी। दोनों के मन बचपन के उन दिनों की ओर उड़ चले। उसी की याद करते-करते दोनों बहुत देर तक बैते रहे। फिर एक लम्बो साँस लेकर बिट्टिदेव बोले, "फिर ऐसे स्वर्णिम दिन नहीं आएंगे, देवि । हमें यह सिंहासन न मिलता, वैसा ही स्वतन्त्र विहार करनेवाला पंछी होता तो कितना अच्छा होता!"
"विधि को कौन मेट सकता है?"
"देवि, यदि तुम स्वीकार करो तो इस दिग्विजय के बाद एक-दो साल एकान्त में व्यतीत करने की इच्छा है। तब तक कुमार बल्लाल राजकाज निभाने लायक हो जाएगा।"
"इस पर तभी सोचेंगे। अभी जो काम सामने हैं, वह करें।" कहकर शान्तलदेवी विट्टिदेव से विदा लेकर चली गयीं।
272 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग भार