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________________ अपन जन्मस्थान की तरफ पाना होने को तैयारी में है। निवेदन करें कि महासन्निधान एवं पट्टमहादेवीजी, दोनों को एक साथ देखने के लिए वह आतुर हैं। शुभकृत संवत्सर में इस कार्य को सम्पन्न कर देने की आचार्यजी की इच्छा है। यदि कोई असुविधा न हो तो शुभकृत चैत्र सुदी में यह कार्य सम्पन्न किया जा सकता है, आचार्यजी की ऐसी सलाइ है।" नागिदेवण्णा से आचार्यजी का यह सन्देश मिलने पर पट्टमहादेवीजी के मन में एक विचार आया। महाराज के यदुगिरि जाने से पहले कटवन पर निर्मित हो रहे जिनालय में शान्तिदूत स्वामी की प्रतिष्ठा क्यों न करा ली जाए ? मन्दिर निर्माण का कार्य पूरा होने को था, इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि अपने गुरु प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेवजी के पास जाकर शान्तिनाथ भगवान् की प्रतिष्ठा के लिए मुहूर्त निश्चित करवा लें। विचार-विनिमय के बाद शुभकृत संवत्सर, प्रतिपदा, बृहस्पतिवार के दिन प्रतिष्ठा के लिए अच्छा है, यह निर्णय हुआ। उसके अनुसार तत्सम्बन्धी तैयारियाँ करने की योजना बनायी गयी। इसी निर्णय के अनुसार महाराज के पास समाचार भी भेज दिया गया। अब की बार स्वयं रेविमय्या ही सन्निधान के पास समाचार देकर आये, ग्रह भो निश्चय किया गया; क्योंकि उसे राजमहल की सारी बातों की जानकारी थी। विषय के निरूपण में उचित-अनुचित का विचार करने में भी वह सक्षम है। प्रतिष्ठा-महोत्सव के लिए रानियाँ-पद्मलदेवी, चामलदेवी और बोप्पिदेवी-के पास आमन्त्रण भेजा गया। आमन्त्रण मिलते ही वे सब आ गयीं। पद्यलदेवी के उत्साह की सीमा नहीं थी। मन्दिर का निर्माण कार्य शीघ्र ही सम्पूर्ण हो गया था। उसकी भावना थी कि पट्टमहादेवी की सुख-शान्ति के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है अत: उसी की सलाह पर इसका मन्दिर निर्माण किया गया था। यह भी एक बात थी कि अपने जीवन में उसका यह एक तरह से प्रायश्चित्त भी हो गया। इससे भी उसे सन्तोष था। उसकी बहनें सदा की तरह उसकी अनुवर्तिनी बनी रहीं। इस प्रतिष्ठा के उत्सव में उपस्थित होने की सूचना पट्टमहादेवी ने रानी लक्ष्मीदेवी के पास भी भेजी थी। सूचना ले जाने वाला, सीधा कोई जवाब न मिलने के कारण लौट आया। नागिदेवण्णाजो के पास भी सूचना भेजी गयी थी। उन्होंने पत्रवाहकों के साथ यदुगिरि जाकर स्वयं ही पट्टमहादेवीजी के सन्देश को आचार्यजी के समक्ष प्रस्तुत कर, उनसे बेलुगोल पधारने के बारे में निवेदन किया। आचार्यजी ने कहा, "इस प्रतिष्ठा के चार ही दिन बाद यहाँ मुहूत ठहराया है। इतने में यहाँ हो आता कैसे सम्भव हो सकेगा, यह उन्हें सूचित करें और आप भी इस समय यहाँ न जाकर. यहाँ की व्यवस्था पर ध्यान दें तो हमारे लिए अधिक सुविधा रहेगी।" "सो तो ठीक है। फिर भी मैं इस तरह का निर्णय करने में असमर्थ हूँ। 228 :: पट्टमहादेत्री शान्तला : भाग चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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