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यह सब देखने के बाद, लक्ष्मीदेवी के मन में यह विचार आया कि पट्टमहादेवी पहले जैसी ही सद्भावना रखती हैं, कोई भाव-परिवर्तन नहीं है। इधर ये जो राजमहल के अन्न के लिए तरस रही हैं, मुझसे भयभीत हो चुप हैं। इसलिए आगे मैं अपने पिता के कहे अनुसार ही कर सकूँगी। यहाँ जैसे लोग मेरी गतिविधियों पर नजर रखते हैं, वहाँ ऐसा नहीं होगा।
सीमन्त-संस्कार सम्पन्न होने के बाद कुछ ही दिनों में एक अच्छे मुहर्त में लक्ष्मीदेवी की यात्रा निश्चित हुई। यात्रा में देखरेख के लिए रेविमय्या साथ रहा।
चलते समय शान्तलदेवी ने लक्ष्मीदेवी से कहा, "देखो लक्ष्मी, तुम्हें मालूम नहीं कि माँ के आश्रय का कितना महत्त्व होता है। प्रसव के समय आत्मीयता से देखभाल करनेवाली स्त्रियों में माँ का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। ऐसी माता के अभाव में आत्मीयता से देखभाल करनेवाली स्त्री का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए हम सबकी राय है कि तुम्हारा यहीं रहना उचित है। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि सन्निधान ने स्वयं आदेश दिया है कि तुम्हारी देखरेख भली-भाँति हो। अतः तुम जितनी जल्दी हो सके, लौट आओ। वास्तव में यह सीमन्त-संस्कार छठे महीने में कराने का पेरा विचार था। तब तक युद्ध में विजयो होकर सन्निधान के लोट आने की भी सम्भावना थी। परन्तु तुमने श्री आचार्यजी के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की। इसलिए जल्दीजल्दी में यह कार्य करना पड़ा। मैंने रेविमय्या से कहा है कि यात्रा में कहीं कोई तकलीफ न हो और ज्यादा हिलना-डुलना न पड़े, इसका खयाल रखकर सावधानी से ले जाना।" ___ "आपकी इस उदारता के लिए मैं कृतज्ञ हूँ।" लक्ष्मीदेवी ने कहा, मगर उसके स्वर में कुछ व्यंग्य था।
"यह सब मेरा कर्तव्य है। जल्दी लौटना।" शान्तलदेवी ने सहज भाव से कहा। मगर लक्ष्मीदेवी का व्यंग्य उनसे छिपा न रहा।
"यदि आपकी इच्छा होती कि में लौट आऊँ तो सन्निधान के लौटने के बाद ही यह सीमन्तोन्नयन की व्यवस्था की जा सकती थी न?" लक्ष्मीदेवी ने कह दिया। वह अपनी दिल की बात छिपा न सकी। दूसरों पर दोष मढ्नेवाले की प्रवृत्ति ही ऐसी होती है।
"किसे लौटने की अभिलाषा है, किसे नहीं, यह बात तुम्हारे दिल से ज्यादा अन्य किसी को मालूम नहीं हो सकती। अपने ही दिल से पूछ लो। तुम्हारी कुछ भी राय हो, सन्निधान के साथ विवाहित होने के बाद तुम हमारी आत्मीया हो। तुम्हारी क्या भावना है यह तुम्हों जानो। भगवान् बाहुबली तुम्हारा कल्याण करें। यात्रा सुखमय हो। हो आओ।" कहकर शान्तलदेवी ने बात समाप्त कर दी।
रानी लक्ष्मीदेवी की यात्रा शुरू हुई।
206 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार