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चामलदेवी और बोप्पिदेवी राजधानी पधारीं । महाराज और पट्टमहादेवी दोनों ने आकर उनके दर्शन किये, कुशल प्रश्न हुए।
ब्रिट्टिदेव जल्दी ही चले गये। शान्तलदेवी ने कहा, "ऐसा लग रहा है जैसे आपको देखे कई युग बीत गये हों । मन्दिर के निर्माण ने सन्त्रको एक साथ देखने का मौका दिया है। मेरे लिए तो आप लोगों का आगमन बहुत ही आनन्ददायक है। कुछ सलाह-मशविरा करना चाहूँ तो यहाँ कोई नहीं।"
"तुमको सलाह दे सकें, ऐसी दिप्ती हगाों से कोई नहीं।" पालदेवी ने यों कह तो दिया लेकिन फिर संकोच हो आया। बोली, "आप पट्टमहादेवी हैं, इस बात को भूल कर कुछ अपनेपन की भावना से कह गयी।"
"आत्मीयता में पद-स्थान गौण रहता है। आप भी तो पट्टमहादेवी ही थीं न?"
"ओह, मेरा किस्सा छोड़ो। आज-जैसी विवेक-शक्ति तब होती! आपको तब शत्रु र मानकर चामला की तरह मित्र मानती, तो मेरा जीवन कुछ और ही होता। हर बात के लिए ईश्वरानुग्रह चाहिए। मेरी वजह से मेरी बहनों का भी जीवन नष्ट हो गया।" पद्मलदेवी ने कहा।
"उन सब बातों का अब स्मरण नहीं करना है। हमें जो प्राप्त हो, उसी से तृप्त होना चाहिए। बहुत लालच करने से मनुष्य सही रास्ते से विचलित हो जाता है। आप लोग उदयादित्यरस के साथ ही आ जाती तो कितना अच्छा होता! अब तो आ गयीं न? आनन्द की बात है। बहुत समय से इधर नहीं आयी थीं।"
"ऐसा कोई विशेष समारम्भ का कार्यक्रम ही नहीं रहा। महाराज सदा युद्ध में लगे रहते हैं। इसे छोड़कर कोई अन्य अवसर होता ही नहीं।"
"वे क्या करें? शत्रु बिना कारण हमला करने को उद्यत हों तो चुपचाप कैसे बैठे रह सकेंगे?"
"उन्हें प्रोत्साहन देनेवाली और दो रानियाँ जो हैं, जलनेवाली आग को हवा करने की तरह।"
"अब वे युद्ध में मुझे नहीं जाने देते। अलावा इसके, रानी बम्मलदेवी साथ रहती हैं तो सन्निधान बहुत उत्साह में होते हैं।"
"इस बात पर विश्वास कैसे करें? अब तो एक और रानी की आवश्यकता हो आयी महाराज को?'
"एक पुरुष के लिए एक स्त्री काफी है। वह न्यायसंगत भी है। दो हो सकती हों तो चार क्यों नहीं? आठ भी क्यों नहीं?"
"तुम्हारी उदारता ही के कारण तो यह सब हुआ। बहुत प्रज्ञ हो सकती हो। परन्तु इस बारे में मैं तुम्हारी इस प्रवृत्ति का विरोध ही करूंगी।"
"एक बात सोचिए। अब तक हम तीन रानियाँ थीं। अब हम चार हैं। अब तक
24 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार