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________________ इच्छा नहीं थी न । तुम्हारा पालन केवल करुणा भाव से किया था। उसका लक्ष्य केवल यही था कि कृतज्ञता से तुम मेरी देखभाल करोगी।" "तो क्या, आपने समझा था कि यदि आपके हाथ की कठपुतली बनी रहती तो ही कृतज्ञ रहती? विवेचनाशक्ति मुझमें उत्पन्न हो जाती तो कृतज्ञ न रहती?" "देखो बेटी, अब तुम रानी बन गयी हो । यह मेरे लिए बहुत आनन्द की बात है। जो रानी होगी उसमें विवेचना शक्ति आ ही जाएगी। वह विवेचना-शक्ति बढ़े, इसीलिए मैंने कहा कि तुम ऐसा करो जैसा मैं कहता हूँ। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि मैंने तुम्हें अपने हाथ की माउली बनिया में कोई ही एक तुम ही हो। तुम्हारा हित ही मेरा हित है, इसी विश्वास से मैंने ऐसा कहा। जो मैं कहता हूँ, वह ठीक जंचे तो करो, नहीं तो मत करो। जैसा तुमको लगे वैसा करी, या सन्निधान के कहे अनुसार करो। परन्तु तुम सन्निधान को अपने वश में कर रखो। यह बात एक स्त्री को सिखायी नहीं जाती। पट्टमहादेवी से तुमको कोई बाधा नहीं; क्योंकि सुना है कि जबसे सन्निधान श्रीवैष्णव बने तब से उन्होंने सन्निधान के साथ संयोग सम्पर्क नहीं रखा है। बाकी रानियाँ भी गिड़गिड़ाकर उनके साथ रही हैं । तुम सबसे छोटी रानी हो, यही एक तुम्हारी खूबी है। इसलिए वे तुम्हारे वश में रहें, इसके लिए जो कुछ कर सकती हो, वह करो। तुम्हारा यह पुराकृत पुण्य है. रानी बनी। वैसे ही राजमाता भी बनो।" लक्ष्मीदेवी ने कुछ कहा नहीं। परन्तु उसका अन्तर कह रहा था, 'हाँ, माँ तो बनना ही चाहिए।' थोड़ी देर दोनों मौन बैठे रहे। बाद में तिरुत्ररंगदास बोला, "अच्छा बेटी, मैं चलता हूँ। तुम्हारा यह मौन मुझ पर क्रोध के कारण से तो नहीं न?" उसने बात का रुख मोड़ दिया। “यहीं भोजन करके जा सकते हैं। आप पर क्रोध करूँ तो मेरे लिए दूसरा है कौन? आपकी किसी भी बात पर मैं कोई निश्चय नहीं कर पा रही है। परन्तु मालूम है कि मेरा हृदय क्या कहता है--'हाँ. तुमको माँ बनना चाहिए।' इसलिए इसके बारे में क्या करना होगा, सोचने का समय चाहिए न?" "सोचो, मैं भी सोचूंगा। मुझे भी नाती देखने की अभिलाषा है, बच्चे के साथ खेलने की अभिलाषा है।'' लक्ष्मीदेवी ने घण्टी बजायी। नौकरानी अन्दर आयी। उससे कहा, "धर्मदर्शीजी यहीं भोजन करेंगे। रसोई में खबर कर दो। तैयार होते ही आकर खबर दो।" नौकरानी ने वैसा ही किया। भोजन तैयार होते ही उसने आकर खबर दी। पितापुत्री दोनों भोजन के लिए रसोई की तरफ चल दिये। पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 167
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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