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"बे गुरु किस धर्म के थे?" "जैन धर्म के।" ।" उन्हें आदेश किस स्थान पर दिया गया?" "वासन्तिकादेवी के मन्दिर में।"
"सल को सिंहासन पर बिठाएँ तो उस राज्य में जैनधर्म अच्छी तरह पनपेगा और बढ़ेगा, यही विचार कर उन्होंने ऐसा किया। वह भी तो मुनि ही थे। सर्वस्व त्यायो ही थे। परन्तु, धर्म का प्रसार करना-कराना हो तो राजाश्रय चाहिए, बेटी! हमारे गुरु के यहाँ आने का कारण तुमको मारनूम ही हैं। यहाँ जो श्रीवैष्णव धर्म का बीज बोया गया है उसे अंकुरित होकर बड़े वृक्ष की तरह बढ़ना-फैलना हो तो उसकी जड़ों को सोचना होगा। यह सब सोच-विचार कर उन्होंने ऐसा किया। हम तुम आचार्य के शिष्य हैं। हमारा प्रथम कर्तव्य है, आचार्य से उपदिष्ट धर्म की सेवा करना । परन्तु हमें अपने लान्य तक पहुँचना हो तो बहुत सतर्कता से आगे बढ़ना होगा। उस जिनभक्त पट्टमहादेवी की कोशिश है श्रीवैष्णव को पनपने न देना और उसको जड़ में पानी न देकर उसे वहीं सुखा देना, अंकुरित होने न देना। इसीलिए यह सब राजनीतिक नाटक रचा गया है। न्याय-विचार के बहाने उन सभी लोगों को पहले से पढ़ा-लिखा कर, सबके सामने कहलवाकर हमारे मुँख पर कालिख पोत दी। मुझे इन कुतन्त्रियों को रोति मालूम नहीं । मूखों की तरह उनमें मिल-जुलकर उनके कहे अनुसार, इन लोगों ने कहा होगा। हम जिस जगह पर हैं, जिस हैसियत के हैं, इन बातों का भी ख्याल न करके, इतने बड़े-बड़े प्रमुखों की सभा में मुझे और तुम्हें अपमान से सिर झुकाना पड़ा, आचार्यजो को डराकर यहाँ से भगा देने की सारी योजना उसी पट्टमहादेवी के पिठुओं की ही तरफ से बनी है। हमारे आचार्य भी पहुंचे हुए व्यक्ति हैं, इन सभी बातों से डरे नहीं, आ ही गये। इन कुतन्त्रियों का काम न बना तो न्याय-विचार का बहाना करके लीपा-पोती की। बेटी, अब आइन्दा तुम्हारा व्यक्तित्व दो-तरफा होना चाहिए। अन्दर एक और प्रकट में एक।"
"यह सब सुनकर डर लगता है। इसमें क्या तो सच है और क्या झूठ, यह सब मेरी समझ में ही नहीं आता।"
"तुम मेरे कहे अनुसार करो। तब क्या झूठ और क्या सच, यह आगे चलकर अपने आप मालूम हो जाएगा।"
'पिताजी ! मैं एक बात पूछू ? कुपित तो नहीं होंगे?" "पूछो, बेटी!"
"आप मुझे अपने हाथ की कठपुतली न बनाकर यदि विवेचना करने की शिक्षा देते तो आपका क्या बिगड़ जाता?"
"देता तो अच्छा होता । कौन मना करता? परन्तु तब तुमको रानी बनाने की मेरी
166 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार