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________________ यहाँ भाग आयी है।" "सच!" "इसी वजह से आचार्यजी जल्दी यदुगिरि आ गये।" "ऐसा! मैं सोच रही थी कि आचार्यजी अभी राजधानी में ही हैं।" "या तो वह आयी नहीं है, या आने की बात गुप्त रखी गयी है, ऐसा मालूम होता है।" "गुप्त रखने का कोई प्रबल कारण होना चाहिए!'' "कल जब सचिव नागिदेवण्णाजी आएँगे तब सब बातें मालूम हो जाएँगी और हाँ, मेरे पिताजी रोज दोपहर एक बार आएंगे। यह खयाल रखो कि उन्हें मेरे विश्रामागार आने-जाने में कोई रोक-रुकावट न हो। बेचारे, भोलेपन के कारण, सबको अच्छा मानकर, वीरशेट्टी के जाल में फँस गये। बहुत पछता रहे हैं। अकेले में परेशान होंगे। अलावा इसके. सन्निधान भी यहाँ नहीं हैं, इससे मुझे भी यह एकान्तवास खरकता हैं।" "कल सचिव जब आएंगे तब उनसे बात कर लें तो धर्मदशौजी को यहाँ रहने को भी कह सकती हैं। उन्हें भी यह चलना-फिरना न रहेगा।" "चलना-फिरना कैसे न रहेगा? मन्दिर का काम है न?" "धर्मदर्शीजी विश्रान्ति चाहेंगे तो सचिव दूसरे को नियुक्त कर देंगे।" "ओह, बेकार बैठे-बैठे खाना उनसे नहीं हो सकेगा। पहले से ही वे किसीन-किसी काम में लगे रहे हैं।" "उनका कार्यकलाप तो उनकी आयु के लिए बहुत अधिक है। भोजन तैयार होते ही खबर दूँगी। अब आराम करें। मुझे आज्ञा हो तो जाऊँ! कुछ दूसरे काम भी करने हैं।" "ठीक है जाओ।" लक्ष्मीदेवी ने कहा। चंगला द्वार बन्द कर चली गयी। बाहर दूसरी नौकसनी पहरे पर रही। सारा दिन आराम करते ही गुजर गया। दूसरे दिन सचिव नागिदेवण्णा कार्यवश मिल न पाये; क्योंकि उनको आचार्यजी के बुलावे पर जरूरी काम से यदुगिरि जाना पड़ा था। तिरुवरंगदास के जरिये यह खबर उन्होंने भेज दी थी। बाप-बेटी को एकान्त में बातचीत करने का मौका मिल गया। नागिदेवण्या की यदुगिरि यात्रा की बात जानकर रानी लक्ष्मीदेवी ने सहज ही पूछ लिया, "क्या कारण हो सकता है?" "उन्होंने कारण नहीं बताया। उनके न आने पर तुम परेशान हो सकती हो यहीं सोचकर शायद डर गये; इसलिए मुझे बुलाकर खबर पहुँचाने को कह गये।" पट्टमहादेवो शान्तला : भाग चार :: 163
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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