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अधिकार उनको है। उन सबकी तरफ से. पोसल राज्य की स्वतन्त्रता के प्रतीक के रूप में हम इन्हें स्वीकार करते हैं. इन्हें धारण करते हैं । इस महान् अवसर पर आचार्यजी आशीर्वाद के रूप में कुछ शब्द कहने का अनुग्रह करें, तो हम कृतकृत्य होंगे।'' इतना ही कहकर वह मौन हो गये।
आचार्यजी ने कहा, "यह भाषण करने का समय नहीं, काम करने का वक्त है। साधारण से साधारण व्यक्ति से लेकर बड़े-से-बड़े व्यक्तियों तक में विश्वास शिथिल होकर, धर्म क्षीण हो रहा है। इसका कारण है अज्ञान । जो लोग अपने देवी-देवता को ही संश्रेष्ट करते है, उनी बड़ा अज्ञातो कोई नहीं। इस बात को अच्छी तरह जान लीजिए। इस राज्य को हमारा पूर्ण आशीर्वाद है । वेलापुरी में विजयनारायण को स्थापना अधर्म पर धर्म के विजय का प्रतीक है । वह मतश्रेष्ठता का चिह्न है ऐसा न कोई माने, न समझे । इसी तरह तलकाडु का कीर्तिनारायण अधर्म पर धर्म की विजय कीर्ति का प्रतीक है । पोय्सल राज्य की सर्वतोन्मुखी प्रगति हो, इसका सुन्दर विकास हो। देखनेवाले यह कहें कि यह चेलुव (सुन्दर) नाडु (प्रदेश) है। भगवान् की इच्छा होगी तो यदुगिरि में सकितिक रूप में चेलुवनारायण मौजूद हैं। यह सहज है कि ये सब श्रीवैष्णव के प्रतीक प्रतीत हों। परन्तु उसे जन्मस्थान और ससुराल दोनों के गौरव की, शीलस्वभाव की रक्षा करनेवाली बह जैसा होना चाहिए, यही हमारा मन्तव्य हैं। यहाँ इन सात-आठ वर्षों के अनुभव ने हमारे मन में एक नयी आशा को जन्म दिया है। सहजीक्न, सहअस्तित्व के योग्य देश बनकर यह पोय्सल राज्य बढ़े. पोय्सल-सन्तान चिरायु हो।"
आचार्यजी के इन वचनों के साथ सभा विसर्जित हुई। जयजयकार से आसमान गूंज उठा। मंच पर से आचार्य उठे और अच्चान के साथ पास के अपने मुकाम पर चले गये। महाराज, पट्टमहादेवी, रानियाँ, मारसिंगय्या-माचिकब्थे, दण्डनाथ मंचियरस, तिरुवरंगदास, प्रधान गंगराज, राजपुत्र और राजकुमारी नियोजित रीति से अपनी-अपनी पालकियों में लौटे।
किसी तरह की रोक-रुकावट या बाधा के बिना विजयोत्सव सांगोपांग सम्पन्न हो गया। आमन्त्रितों के लिए निवास, खान-पान, वैद्यकी आदि सम्पूर्ण व्यवस्था सन्तोषजनक ढंग से की गयी थी। वह एक प्रशान्त और व्यवस्थित समारोह था। वेलापुरी की शोभा अपूर्व ही थी। इस खुली सभा के साथ विजयोत्सव सम्बन्धी सभी कार्यकलाप सपाप्तप्राय थे। कुछ प्रमुख लोगों को छोड़कर, बाकी सभी जन अपनेअपने नगर-ग्रामों के लिए रवाना होने लगे। दो-तीन दिनों के अन्दर-अन्दर सभी अतिथि लौट गये।
राजमहल के मन्त्रणालय में राज्य के मुख्याधिकारियों की एक अन्तरंग सभा की व्यवस्था की गयी थी, इसी उद्देश्य से उन्हें ठहराया गया था। इस सभा में महाराज और पट्टमहादेवी, सिर्फ ये दो उपस्थित रहे । अधिकारी वर्ग के सिवा और कोई उस सभा
122 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार