SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हैं। उसके लिए हम ही कारण हैं, आप लोग जरा भी नहीं।" __ "इस पूर्वग्रह को छोड़कर उस आनन्द से हमें तृप्ति देने की कृपा करें, देव! बाहर को भलकर अनर में गोपए कर देगिर कोई अन्तर नहीं दिखेगा।" बिट्टिदेब कुछ न बोले। निरभ्र आकाश में विराजमान हिमांशु की ओर देखते हुए बैठे रहे। "तारानाथ ने मेरी सलाह का अनुमोदन कर दिया है प्रभु! उसके उस हास्य भरे मुख को तो देखिए।" कहती हुई राजलदेवी ने बिट्टिदेव को अपनी बाजुओं में लेकर गाढ़ालिंगन के साथ उनका चुम्बन ले लिया। बिट्टिदेव के बाहुओं ने अनायास ही राजलदेवी को कस लिया। दोनों दूसरी दुनिया की सैर करने लगे। राजदम्पती के बैठने के लिए जो गद्दी लगी थी, वहीं बिछावन बन गया। राजलदेवी को इस निसर्ग सौन्दर्य में अपरिमित सुख प्राप्त हुआ। बिट्टिदेव भी तन्मय बने रहे। उन्होंने कहा, "देवि, तुमने हमें आज एक नयी प्रेरणा दी। तुमसे यह सब हो सकेगा, इसकी हमने कल्पना भी नहीं की थी। पट्टमहादेवी की भावनाओं की स्मृति ही इस सबका शायद कारण हैं। इसीलिए शायद पट्टमहादेवी ने तुम्हें साथ ले जाने की सलाह दी थी। यहाँ की परिस्थिति और धार्मिक विचारों की कट्टरता आदि हमारी मानसिक शान्ति को नष्ट-भ्रष्ट कर देगी, यही उन्होंने विचार किया होगा।" इस समय चन्द्रमा बीच आसमान में पहुंच चुका था। राजदम्पती मण्डप से निकले और रेविमय्या से आ मिले। रेविमय्या का इशारा पाकर, नरसिंह भगवान के मन्दिर के पास जो लोग पहरे पर थे, ऊपर चढ़ आये। इन अंगरक्षकों के साथ राजदम्पती राजमहल पहुंचे। रेविमय्या दूसरे ही दिन बेलापुरी के लिए रवाना हुआ। दो ही दिनों में मायणचट्टला, दोनों यादवपुरी जा पहुँचे थे। इस बीच आचार्यजी का स्वागत कर रानी लक्ष्मीदेवी, तिरुवरंगदास और शंकर दण्डनाथ यादवपुरी लौट आये थे। लक्ष्मीदेवी को रेविमय्या के लौट जाने की बात मालूम हुई तो उसने पूछा, ।"रेविमय्या क्यों चले गये।" "श्रीआचार्यजी की वापसी की बात बताकर, विजयोत्सव के लिए मुहूर्त निश्चय करने का सन्देश देने के लिए हमने ही उसे भेजा है। जल्दी ही मुहूर्त निश्चित करके वेलापूरी से किसी को भेज देंगे।" बिद्रिदेव ने कहा। मायण और चट्टला खबर ले आये होंगे. ऐसा सपझकर लक्ष्मीदवी ने पूछा, "मुहूर्त कब का निश्चय हुआ है?" "तीन-चार मुहूर्त ठीक किये हैं । आचार्यजी की सुविधा को ज्ञात करने के बाद ही खबर भेजनी होगी। इसलिए हम सब कल अधुगिरि के लिए रवाना होंगे।"बिट्टिदेव t04 :: पट्टमहादेवी शान्तस्ता : भाप चार
SR No.090352
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages458
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy