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"यह सूचना महामातृश्री के रहते उनके कानों में भी पहुंची थी। आज वे नहीं हैं, फिर भी वहाँ ऊपर बैठकर यह सब देख-सुन रहो हैं। राजाओं की अनेक रानियों के हो सकने की रीति को हमारी सभ्यता ने मान्यता दी है। आप लोगों में महाराज के प्रति यदि प्रेम हो गया है तो उसका आधार यही मान्यता है न? महामातृश्री ने तो इस तरह की रीति को कभी योग्य नहीं माता था।" रेबिमय्या ने कहा।
"महामातृश्री तक यह विचार पहुँच चुका था तो समझना चाहिए यह पहले ही से हवा में तैर रहा है। परन्तु हम तक वह हवा पहुँची ही नहीं न?" बिट्टिदेव ने कहा।
"शायद सन्निधान के पास के पंखे की हवा के जोर से वह दूर बह गया होगा। अभी वह मुख्य विषय नहीं। इस री भी मिला है इक मरियाग का होगा का पर मुझे भी सोचना है न? रेविमय्या के कहे अनुसार यह सच है कि महामातृश्री इस बात को जानती थीं। उन्होंने मुझसे भी इस विषय पर बातचीत की थी और इस बात पर अपनी असम्मति स्पष्ट रूप से प्रकट की थी। यह कहते समय उनके मन में मेरे ही विषय को लेकर चिन्ता थी। उनकी कल्पना थी कि मेरे दूध-से शुद्ध जीवन में थोड़ी-सी खटाई पड़ जाएगी। बात की सच्चाई ज्ञात करने के लिए उन्होंने गुप्तचरों से काम लिया था। उन्हें सन्निधान के मन के अभिप्राय का भी परिचय मिल चुका था। उन्होंने कहा था, 'अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी मार लेने के लिए आगे क्यों बढ़ती हो, समय आए तो इसका विरोध करने का वचन दो।' मैंने ही उनसे कहा था-'दिवंगस महाराज ने सगी बहनों से ही विवाह किया था फिर भी उनके जीवन में सामरस्य न रहा। राजमहल में अनिरीक्षित और अवांछित घटना ही घट गयी। इसी को मन में रखकर मुझसे वचन देने की बात कह रही हैं। सौतों के झगड़ों में पड़कर पति की दुर्दशा हो जाती है, उससे आप भयभीत हैं। मैं एक वचन देती हूँ। मेरे किसी भी निर्णय से सन्निधान की इच्छा का विरोध न हो-इस तरह मैं बरतूंगी। उनका सुख ही मेरा सुख है। मैंने अपने वैयक्तिक सुख की चाह कभी नहीं की। अगर ऐसी कोई बात हो भी तो वह मुझे प्राप्त हो गया है। मेरे स्वामी से कोई भी मुझे दूर नहीं कर सकता। हयास प्रेम बचपन से प्रवृद्ध निष्कल्मष और परिशुद्ध प्रेम है। वह अब प्रबुद्ध भी है। जब इस प्रेम की छाप हृदयों पर पड़ चुकी है, तो अब किसी में भी इसे डिगाने की सामर्थ्य नहीं। आप निश्चिन्त रहें।' यों मैंने उन्हें समझाया था। यदि मैं ऐसा न समझाती तो वे स्वयं सन्निधान से इस विषय में बातचीत करना चाहती थीं। पैंने ही उन्हें रोक दिया। मुझपर भरोसा रखकर शान्तिपूर्वक वे परलोक सिधार गर्यो।' पट्टमहादेवी ने विस्तार के साथ बताया।
"तो क्या महामात श्री को हम पर असमाधान की भावना रही।
पट्टपहाडो शान्तला : भाग तीन :: 73