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________________ तीनों ने परस्पर एक-दूसरे को सीधे देखा। तीनों के मुख मुसकान से खिल उठे। साथ ही, हर्ष के आँसू भी बह आये। मन्दिर और सम्पूर्ण वातावरण होद्गार से निनादित हो उठा। शान्तलदेवी ने विट्टिदेव के कानों में धीमे से कहा, "यह एक अद्भुत समागम "देवी, यह सब तुम्हारा ही चमत्कार है। सर्वत्र सौहार्द और सहृदयतापूर्ण सुख-शान्ति को प्रतिष्ठित कर सकने की तुम्हारी शक्ति को जानना भी कठिन है। आचार्यश्री से डरकर अदृश्य होनेवाले जकणाचार्य इस कार्य को स्वीकार करके, कितने बदल गये, यही एक महान आश्चर्य की बात है।" बिद्रिदेव ने कहा। "इन सब बातों का विश्लेषण फिर करेंगे। अब सभा को विसर्जित करें। हमें और भी बहुत-से काम करने हैं। अभी एक दूसरे विग्रह का निर्माण भी होना है। मुहूर्त के लिए पाँच ही दिन शेष रह गये हैं।" शान्तलदेवी ने कहा। आनन्दविभोर सभा विसर्जित हुई। फिर भी तिरुवरंगदास को सन्तोष नहीं हुआ। किसी एक के हाथ कटने ही चाहिए थे। वही देखने की उसकी अभिलाषा रही। दूसरों की बुराई करने में सोने को स्या आनन्द मिलता है, ईश्वर ही जाने। पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 485
SR No.090351
Book TitlePattmahadevi Shatala Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorC K Nagraj Rao
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages483
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & History
File Size9 MB
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